गुरुवार, 30 मार्च 2017

माननीय मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी से अपील

आदरणीय मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी से सोसियल मीडिया के माध्यम से अपील है कि उत्तराखंड राज्य का प्रसार भारती भवन (दूरदर्शन व आकाशवाणी ) विधानसभा के सामने बनकर तैयार हो चूका है।  दूरदर्शन व आकाशवाणी के कार्यक्रम बन रहे है। आकशवाणी काफी महिनों से ट्रायल कार्यकर्मों का प्रसारण कर रहा है लेकिन विधिवत अनुमति नहीं मिली है व उद्घाटन का इन्तजार कर रहा है। मेरा आपसे निवेदन है कि। ...

१- राज्य मे दूरदर्शन व आकाशवाणी के  २४ घंटे प्रसारण सुनिश्चित किया जाये।
२- दूरदर्शन व आकाशवाणी को डी टी एच / सेटेलाइट पर अपलिंक किया जाये।
३- उत्तराखंड राज्य का स्वतंत्र रेडियो व टीवी चैनल हो जैसे अन्य कई राज्यो का है।
४- राज्य के अधिकांश दूरदर्शन के टॉवर ठप्प है और नही केवल चैनल उत्तराखंड दूरदर्शन को प्राथमिकता देते हैं। उत्तराखंड दूरदर्शन डी टी एच / सेटेलाइट पर न होने से लोग देख नहीं पा रहे हैं। उत्तराखंड दूरदर्शन केवल औपचारिकता भर बना हुआ है।
५- इसी तरह आकाशवाणी की स्थिति बनी हुई है. उत्तराखंड का समाचार बुलेटिन नहीं हैं। दूरदराज गांवों मैं लोग माननीय प्रधानमंत्री जी के "मन की बात" नहीं सुन प् रहे हैं। अन्य कार्यक्रमो का निर्माण भी उद्घाटन न होने की वजह से रुका पड़ा है।
६- दूरदर्शन व आकाशवाणी के २४ घंटे प्रसारण होने से राज्य के लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों, फिल्मकारों, संगीत, संस्कृति, पर्यावरण, समाज, विज्ञान व विकाश से जुड़े सैकड़ों लोगों को एक रचनात्मक मंच मिलेगा।
७ - केंद्र अन्य राज्यों  सहित उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड मैं भाजपा की ही सरकार हैं इसलिए दूरदर्शन व आकाशवाणी को डी टी एच / सेटेलाइट पर लाकर राज्य का स्वतंत्र चैनल बनने मैं कोई अड़चन नहीं है. पूर्व की सरकार ने उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड के दूरदर्शन के चैनल को  डी टी एच / सेटेलाइट से इसलिए नहीं अपलिंक  किया जिससे राज्यों की सरकार चैनल का अपने पक्ष मैं उपयोग न कर सके, ऐसी लोगों की आशंका रही है।
८  - आपसे निवेदन है कि  प्रसार भारती भवन (दूरदर्शन व आकाशवाणी ) का अति शीघ्र माननीय प्रधानमंत्री जी से उद्घाटन करवायें व आधुनिक डिजिटल संचार तकनीकी से राज्य की अछि छवि जन जन तक पहुँचाने मे अपना सक्रीय योगदान प्रदान करेंगे।

जयप्रकाश पंवार 'जेपी '
(लेखक, पत्रकार, फ़िल्म, रेडियो  एवं डिजिटल मीडिया )

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

धूप

धूप 

सुबह से थक गयी है 
धूप
धीरे - धीरे पहाड़ों से 
उतर रही है धूप. 

धुप्प अँधेरे के बाद
सुबह 
धीरे - धीरे चढ़ रही थी धूप,

खिड़की दरवाजों से 
ताक झांक कर रही थी धूप,

चमकती बर्फीली चोटियों में 
यहाँ -वहाँ, जहाँ -तहां 
पसर रही थी धूप,

चिड़ियों ने छोड़े घोंसले
घने जंगलों से निकल पड़े थे बन्य जीव,
गायों की घंटियाँ घन घना उठी थी 
बच्चों के सज चुके थे बस्ते 
स्कूल के रस्तों पर 
धीरे - धीरे बिख़र रही थी धूप,

बहुत दिनों की बरख़ा के बाद 
आज फिर खिली थी धूप,

सुबह से हो गयी शाम 
अब सोने लगी है धूप। 


जयप्रकाश पंवार 'जेपी ' 

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार - राकेश मोहन थपलियाल जी का आलेख

पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार
राकेश मोहन थपलियाल जी का आलेख
टीरी –बजार क्या था कि, सीधी सड़क, समतल.सुमन चौक से शुरू और बस अड्डे पे ख़तम . एक घंटे में चार चक्कर मार लो और थक गए तो थोड़ी देर हवा –घर में गंगाजी की ठंडी –ठंडी हवा खाओ बतियाओ और फिर वापस लौट के सौदा –पत्ता खरीदो और कुछ देर या तो किसी दुकानदार का दिमाग खाओ या फिर उसकी दुकान में थोड़ी देर अपना अड्डा जमाओ और थोडा गपशप मारके फिर अपने घर जाओ ?
टीरी –बजार की ये भी एक खासियत थी कि, वो अकेला ही पूरा बाजार था, कोई ब्रांच नहीं, बस मेन मार्केट . शाम को वहां कुछ परदेशियों समेत , छुट्टी में आये कुछ पुराने बाशिंदों सहित, दीदी – भुली ,चाचा –ताऊ , भैजी –भुला सब मिल जाते थे , किसी के घर जाने की भी जरुरत नहीं, बस आटोमेटिक मिलन ? यदि हमारे जैसे छोकरे हैं तो सुमन चौक में कहीं खड़े हैं किसी खोखे के आगे या पीपल के पेड़ के नीचे अर्थात पुराने बड़-डाले के भैरो देवता की बगल में खड़े हैं या फिर लईक की दुकान में बाल बनाने घुसे हैं या फिर सत्ये सिंह की कोने की दुकान में बैठकर चाय पी रहे हैं . और जो संभ्रांत नागरिक हैं तो वे महंतजी या श्यामू भाई के यहाँ पान चबाते हुए, नमो या नोटबंदी पर चर्चा में मशगूल हैं या फिर सलीम बूट हॉउस अथवा गैरोला डाक्टर साब की दुकान में बैठे मिल जाएंगे या आगे लाला जुगमंदर दासजी की दुकान की शोभा बढ़ाते हुए अन्यथा पैनुली बंधुओं की दुकान के आगे खड़े होकर कार्लमार्क्स, लेलिन, निक्सन, गाँधीजी से लेकर इंदिरा गाँधी तक, स्थानीय राजघराने और आम चुनाव तथा टिकट बंटवारे पर चर्चा करते हुए दिख जाते थे ? टेहरी में कभी त्रेपन सिंह नेगीजी आये हुए हैं तो कभी गोविन्द सिंग नेगी, विधायक जी उनके साथ बाजार में विद्यासागर नौटियालजी भी हैं, कामरेड प्रेम चौहान हैं और और भी दो –चार लोग हैं ,दुआ –सलाम जारी है ? बाजार में कभी खुशहाल सिंग रांगड़ हैं तो कभी भूदेव लखेड़ा हैं और उनके साथ में स्थानीय लोग भी टहल रहे हैं. अचानक कोई नमस्कार करने के बाद अपनी समस्या का पिटारा खोल के बता रहा है ?
ये जो हमारे बाप ,चचा ,ताऊ लोग थे ,ये कुंदनलाल सहगल की आवाज के फैन हैं, भारत भूषण की एक्टिंग के कायल थे .बलराज साहनी , राजकपूर ,शमशाद बेगम के साथ ही बड़े हुए थे ? जो लोग उस शहर में जो लोग नौकरी करने की मजबूरी में बाहर से आए हुए थे और किराएदार की हैसियत से रहते थे तो उनके भी अपने –अपने टाईम पास के लिए कोई न कोई ठिये रहते ही थे ? और जो लोग अपनी रिश्तेदारी में मिलने या किसी शादी –विवाह के बहाने टेहरी घूमने आये होते थे तो वो भी बाजार का एक आध चक्कर लगाने के बाद प्रदीप के आँचल होटल में या मुनीम के होटल में बैठकर चाय पीते थे, समोसे, टिक्की –छोले या रसमलाई खाते थे ?
दोस्तों बाजार का संबंध केवल सामान खरीदने से ही नहीं होता है बल्कि शाम को बाजार जाने का मतलब एक –दो घंटे अच्छे से वक्त गुजारना भी होता है. अब ये कोई जरुरी नहीं कि, आप रोज -रोज ही सामान खरीदें पर अच्छी सेहत के लिए बाजार का एक- आध चक्कर लाजिमी है. बाजार जाने का मतलब अर्थात दोस्तों या परिचितों से मिलना, थोड़ा घूमना –फिरना और टहलना अथवा किसी –किसी के लिए चंद्रमुखी के दर्शन भी होता है ?
हमने टीरी बजार के कई रंग देखे थे 1965-70 तक तो इसका रंग थोड़ा फीका ही था. दिन में भी आधी दुकानें बंद रहती थी और गोदाम होती थी . शाम को और खासकर सर्दियों में 6 बजे के बाद, आधे लोग तो धनराजजी की दुकान, लिपटिसके पेड़ या अधिक से अधिक मार्तंड होटल तक ही जाकर वापस लौट जाते थे . उनके लिए , उनके शब्दों में, इसके आगे , बाजार घूमने लायक कुछ था ही नहीं या बाजार ही नहीं था बल्कि बस अड्डा ही था .
हमने या हमसे 5 -7 साल बड़ी पीढ़ी ने विविध भारती या फिर बिनाका गीतमाला पर अमीन सयानी को सुनकर ही जिंदगी गुजारी थी . हम रेडिओ पर लता, मुकेश ,मोहोम्मद रफ़ी और किशोर कुमार को दिन में भी सुनते और रात में भी सुनते थे. हम देवानंद , राजेंद्र कुमार, राजकपूर, धमेंद्र बनने का सपना देखते थे . रात को नींद में मीनाकुमारी ,नूतन, आशापरेख, वैजंतीमाला, और मालासिंन्हा को अपने सपनों में देखते और फिर किसी लोकल सूरत –मूरत में उनकी छवि तलाशने की कोशिस करते थे . हमारी पीढ़ी ने हेमा ,रेखा और जीनत अमान को बेइंतिहा प्यार चाह था ? और हमसे 8 -7 साल छोटी पीढ़ी जिसमे नरेंदर, कृष्णा, भीमू, सुधीर , बीरी –मल्ल, भुवनवीर, भवानी शंकर, बद्री सकलानी वगैरा आते हैं वो शायद शाहरुख खान , सलमान के हमउम्र हैं और कुछ –कुछ उनके जैसे दिखने की कोशिश भी करते होंगे ? जो उस समय तो छोटे थे पर बाद के सालों में और शहर डूबने से कुछ साल पहले ,उन्होंने ने भी टेहरी बाजार में किसी दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा को अवश्य तलाश होगा, ऐसा मेरा विश्वास है ?
सन 75 -80 में तब अपनी एक शाम का नजारा कुछ कुछ ऐसा होता था, जैसे कि, मै शिवमंदिर के पास दिन्नू के पान के खोखे पर खड़ा होकर धुआं उड़ा रहा हूँ, कि तब तक सुशील भाई भी आ गए, घर भी उनका वहीँ पास में ही था. “ चल बे पनवाड़ी एक बीडी पिला ” , भाई ने हुकम दिया .अब भाई का हुकम है तो फिर हुकम है ? दिन्नू इस पर अधिक से अधिक थोडा भुनभुना ही सकता है . उसके लिए भाई का आदेश वैसे ही है ,जैसे किसी भाजपा वाले के लिए मोदीजी का आदेश ? भाई को बस दो दम ही मारने हैं तो फिर दिन्नू को मज़बूरी में नमो, नमो कहकर एक खाकी कैपेस्टन देनी ही पड़ेगी ? तब तक लो पुन्नू भाई भी आ गए, उन्होंने आते ही फ़रमाया कि, “ ला बे पनवाड़ी एक सिगरेट पिला ” ? पहले उन्होंने बड़े आराम से सिगरेट सुल्काई और फिर धुँआ छोड़ते हुए बड़े इतमिनान से कहा , “ पैसे बाद में लेना बे ” . बेचारे दिन्नु का मुंह छोटा हो गया, वो अपने आप में ही बडबडाने लगा, “ भाई बत्ती का टाईम है यार ,माँ कसम. पुन्नू भाई ने कहा, अबे अभी बत्ती बाली तो नहीं है न ? साला – जा देखो रोता ही रहता है. वैसे पनवाड़ी को भी यह पता है कि, इनके यहाँ देर हो सकती है पर अंधेर नहीं है ?
इन लोगों की अधिकतर शामें फुटबाल खेलते ही गुजरती थी, भले ही उन्हें पेले या मैराड़ोना नहीं बनना था और न ही बर्मिंघम या यार्कशायर से खेलना था . तब तक दिन्नू के बड़े भ्राता छुन्नू मामू भी आ गए. वे चलते –चलते ही दुआ –सलाम करके बोले, मामू जरा एक मिनट मंदिर से होकर आता हूँ . मंदिर में समस्या ये थी कि, भगवान तो वहां चौबीसों घंटे मौजूद रहते थे पर उनके पुजारी बड़ी मुश्किल से मिलते थे और युवाशक्ति को जोश और जूनून पुजारी से ही मिलता था, उससे फरियाद करनी पड़ती थी, वरना तो घंटो खड़े रहो, मोहल्ले या जान पहचान की औरतों से मुंह छिपाते फिरो या फिर बुद्धी भाई के इंतजार में ,नीचे बहती भिलंगना और सामने कंडल के खेतों को निहारते रहो ? फुटबालर तो चले गए और तब तक छुन्नी मामू भी लौट आये. आते ही उन्होंने मुझसे एक सिगरेट की फरमायश की. दिन्नु ने सिगरेट देते हुए कहा ,कि मामू आजकल ईधर गन्दी –मक्खी बहुत घूमती रहती हैं . टिहरीवालों के, डिक्सनरी से परे हटके कुछ अपने प्राइवेट शब्द भी रहते थे, मसलन ---- औखई , पथेरी, टिक्की ठिंग और कुछ अन्य स्थानों में भी प्रचलित शब्द. जैसे कि , लुक्कर या ठुल्ला या जैसे “ एक ( रुपये ) का डॉलर ”. जिसे सुनकर ओबामा तो चकराए ही पर डोनाल्ड ट्रम्प भी चक्कर में पड़ जाएँगे ?
बाजार की शुरुआत दरसल में यहीं दिन्नू की दुकान अर्थात सुमन चौक से होती थी लेकिन सुमन चौक बाजार के मुहाने पर स्थित होकर भी, ग्राहकी का जोर न होने के कारण बाजार की अवधारणा में फिट नहीं बैठता था ? दिन्नू का खोखा ,शिव मंदिर की सीढियों के पास तथा उसके बड़े भ्राता कम्मू मामू की किताबों की दुकान से सटा हुवा था. कम्मू मामू राज परिवार की निगाह में भगवती राजराजेश्वरी के पुजारी थे तो बाकी जनता के लिए एक किताब विक्रेता और कुछ-कुछ के लिए बुध को शुक्र से मिलाने वाले नजूमी का काम भी करते थे. उनके मालिक ए मकान, मंदिर के महंत थे. रामचंदर गिरी ने दिन्नू के बाजू में कुछ समय तक “ कोपा –कबाना ” नाम का एक होटल भी चलाया था पर होटल तो महज एक बहाना था . एक बार वो बिल्लू और डिप्टी के साथ बंबई भाग गया था तो शायद कोपा –कबाना नाम वहीँ से आया था ? उसके बाजु में सुशील भाई के मकान में एक ड्राईक्लीन की दुकान थी, जिसके बाजु में महाबीर टेलर्स था और उसकी बगल में किसी सरकारी विभाग का स्टोर जैसा कुछ था. महावीर के यहाँ शुरूआत में लड़कों का जमघट लगा रहता था और वो भी आल्टरेशन के काम के लिए.
नीचे बाजार की तरफ बढ़ने पर रामेश्वर भट्टजी की कपड़े की एक छोटी सी दुकान थी. उनकी पुलिसवालों से काफी छनती थी और अक्सर अपने बेटे हंसराम को पुकारते नजर आते थे. कभी इसी दुकान में वर्षों तक भाई कमल सिंह असवाल के पिताजी ने भी स्वर्णकार का व्यवसाय किया था . उनके सामने एक किसी सरकारी विभाग का छोटा गोदाम था तो कभी वहां साइकल की कोई दुकान होती तो कभी जग्गू –बार्बर आदि खुलते बंद होते रहते थे ? भट्टजी के बाजू में एक सांप जैसी पतली गली थी और उससे सटा मामू हर्षु का मकान था , जिसके निचले ताल पर कई साल तक प्रेस की लौंड्री व साइकिल मरम्मत की दुकान भी रही. उसे रामकुमार के भाई चलाते थे और हम भी कई बार वहां प्रेस करवाते थे. उसके आगे जगतु का होटल था,जो मूलरूप से चाटवाला था .शहर में श्रीनंद भाई, उनका भाई सत्तू, यही सब भौन्याडावाले चाट कंपनी के कर्ताधर्ता थे . जगतु भाई की उस ज़माने में एक लाख की लाट्री लगने की भी चर्चा थी. उसके आगे भाई थेपडराम सेमवाल की परचून की दुकान थी, दुकानदारी का हुनर उसने पंजाबी दमीर परिवार से सीखा था और फिर खुद –मुख़्तार बन बैठा. हमारे मोहल्ले की बीटीसी स्कूल की बिल्डिंग उसी की थी, थेपडु भाई बड़ा मजाकिया आदमी था. उसकी बगल में एक टेलर मास्टर और फिर सतपाल भाई की सोने –चांदी की दुकान थी ,जो निवासी तो भोगपुर के थे पर ससुराल के लिए उन्हें टेहरी पसंद आ गई . ये सब सतीश सेमवाल के किरायेदार थे.
सतपाल भाई के सामने पुंडीरजी थे, बड़ा ही मसखरा स्वभाव, मालदार खानदान लेकिन उनका तकिया कलाम “ गरीब ” था . दुकानदार बनने के पहले वो सैनिटरी –इंस्पेक्टर थे. बात –बात पर उन्हें बात-बात में “ अजी --- गरीब ” कहने और साथ ही गले पर अंग्रेजी के “ वी ” आकार में दो ऊँगली रखकर ,फांसी का फंदा बनाने की आदत थी .वो कहते थे कि, उनके दिमाग के कंपूटर में टेहरी के बाबर –अकबर से लेकर, सूर्यवंशी ठाकुरों के वंशजों तक की जानकारी फीड है और वो इस डाटा को ह्रदय में समेटकर रखने के लिए स्वयं को धन्य मानते थे. किसी का भी जिकर हो, वो कहते, “ अजी इस गरीब को पूछो, थपलियालजी ” ? उन्हें दुकान दवा की बिक्री कोई खास चिंता नहीं रहती थी, पैसे भी --- वो कहते थे ,बाद में आ जायेंगे ? उनकी मनोरंजक बातों को सुनने और अपना मूड फ्रेश करने के लिए कई लोग उनकी दुकान में जाया करते थे . दुबली पतली काया, बंद गले का कोट , पतला चेहरा ,गोरी रंगत सुतवा नाक , उस पर चश्मा और सर के आधे बाल गायब --- काश कोई स्थानीय अख़बार होता और उन पर कोई कार्टून छापता ? वो नरेन्द्रनगर को नंगा नगर कहकर संबोधित करते और सुमन चौक को सूना– चौक कहकर पुकारते ,क्योंकि ये चौक हमेशा भीड़-विहीन रहता था . वैसे व्यवसाय के हिसाब से देखा जाय तो यह दरसल में, सुवर्ण –नगरी था जहाँ खरे को खोटा और खोटे को खरा किया जाता था ? सारे स्वर्णकार / सुनार इसी के इर्दगिर्द और आसपास में ही थे, जैसे कि सतपाल भाई के ससुर चिरंजी भाई ,जिनकी दुकान में बाद में मसीह वाचनालय खुला था .
पुंडीरजी की बगल में एक ज़माने में कोआपरेटिव बैंक वाले रावतजी ने “ रॉयल ” होटल भी खोला था और उसके बाजू में खादी भंडार का गोदाम था. जि सकी बगल में ही कभी बहुत साल पहले, हमारे बचपन में जमना मास्टरजी का बच्चों का स्कूल भी था और बाद में उसी में दिन्नू के बड़े भाई मामू बुद्धि घिल्डियाल ने बरसों सब्जी की दुकान भी चलाई थी और बाद में आई.टी आई. में मास्टर बन गया . इन सब दुकानों के मालिक नरेंदर ,सुरेंदर पुंडीर बंधु थे और राजू भाई की तो किसी को याद भी क्या होगी, उसे बड़ा छित्ता / छिद्दर होने के कारण, लोग राजू-मदारी भी बुलाते थे ? तब फिर वंशीलाल पुंडीरजी, वकील साब का तिमंजिला आलिशान भवन था, उनके पिता ठाकुर अमरसिंह थे, जिन्हें लोग शाहजी कहते थे. वो स्वर्णकारी के पेशे में राजा के ज़माने से थे और साहूकारी,रेहान व बंधक का काम भी करते थे . उनके किरायेदार हाफीजी थे ,वे नगीना –धामपुर के वासी थे , उनके सैलून में जंगली जानवरों की ढेरों तस्वीरें थी ,जिन्हें हम “ सीनरी ” कहते थे . वे संभ्रांत लोगों के बाल काटते थे . पता नहीं बचपन में कितनी बार उनके उस्तरे से मेरे कान के पीछे भी कटा होगा ? हाफिजी बड़ी नफासत से उर्दू बोलते और साथ ही हमारे चाचा –ताऊ को बड़े मनोयोग से अंग्रेजी मेमों के किस्से भी सुनाते थे . उनका बीचवाला लड़का रफीक हमारा हमउम्र था . उनके बड़े लड़के अतीक ने कुछ दिन सुमन चौक में ही एक अलग केशकर्तनालय भी खोला था , सेमवालजी के पास में . उसे जब चाय मगानी होती थी, तो भाई चायवाले की दुकान में एक बड़ा शीशा चमकाता, कभी –कभी तो सीधा उसके मुंह पर और फिर चायवाले के देखने पर , एक की दो या दो की तीन का इशारा करता था . हाफिजी की विरासत को बाद में लईक ने संभाला था .
लईक की बगल में हमारे शहर की सबसे चर्चित, हमारे मोहल्ले के लल्लू चिचा की अंग्रेजी शराब की दुकान थी . दुकान शहर में लल्लू ब्रांडी के नाम से मशहूर थी. वह जमाना शर्म –लिहाज का जमाना था तो हमारे बड़े –बुजुर्ग भी उस दुकान पर दो मिनट खड़े रहने में कतराते थे , कि कहीं देख न ले ? कोई –कोई तो स्वयं दूर खड़े रह कर, किसी होटल के नौकर को एक –दो रुपये देकर, उनसे मंगाते थे . क्या परदे और परहेज का जमाना था वो ? बोर्ड की परीक्षा के समय में हम जैसे लड़के भी एक्जामिनर का नाम लेकर चले जाते थे , कोई डर –भय नहीं क्योंकि खुद तो पीनी नहीं थी और दसवीं –बारहवीं के बच्चों को प्रैक्टिकल में पास भी होना था ? बाद में वहां वकील –साहब के लड़के वीरेंदर ने प्रिंटिंग प्रेस डाल दी और भागीरथी प्रकाशन गृह खोल दिया. सबसे आखिर में सत्तेसिंहका खोखा था. हट्टा –कट्टा नौजवान, पुट्टापूर्थी के साईं बाबा जैसे बाल पर हम हरामी लोग उसे खाडू बोलते थे. उसके सामने कुछ दिन डॉक्टर मोहन भट्ट ने अपना क्लीनिक भी खोला था पर काफी बाद में .उनके आगे नत्थू –टीटू के पिता, गोपी सुनार की दुकान थी. ये लोग मुजफ्फर नगर के वासी थे ,पिता की मृत्त्यु के बाद टीटू ने पिता की गद्दी संभाली जबकि उसके भाई नत्थू ने सुमन चौक में पहले ही एक स्वतंत्र दुकान खोल ली थी. टीटू के बाजु में, अठूर के नारायणसिंह सुनार की दुकान थी फिर एक सुनार और थे उनका नाम तो याद नहीं पर लोग उन्हें थनवा सुनार कहकर बुलाते थे , दुकान में पिता –पुत्र काम करते थे .
पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार *******
थनवा सुनारजी के पास में ही था प्रतिष्ठित लाला गंगाशरणजी अग्रवाल का घर, किसी ज़माने में उनका बहुत अच्छा कारोबार था, पांच – छह लड़के थे , बसें थी, पुराने मोटर अड्डे में आढ़त का कारोबार ऋषिकेश में भी दुकान थी . संपन्नता ,खुशहाली और वैभव सभी कुछ था उनके पास ,फिर न जाने किसकी नजर लगी कि उनके दो जवान , होनहार बेटे अचानक चल बसे, विमल और बीरू ,विमल जन्माष्टमी के दिन शिवमंदिर के नीचे बहा और वीरू एक कार हादसे में अपाहिज होने के सालभर बाद चल बसा . उनका एक लड़का विक्रम हमारे साथ पढता था और दो बड़े लड़के और भी थे , जिनमें एक पंकज के पिता हैं . बाद-बाद में पंकज ने काफी समय तक घर के बाहर बनी दुकान में गिफ्ट आयटम और उपन्यास रखकर पढाई के साथ स्वाबलंबन को कमाई का जरिया भी बनाया.
उनके पास ही पीताम्बर दत्त बहुगुणाजी, का भवन था जिसमे उनके एक अभियंता पुत्र, कुलेंद्र / नानू मामू के बड़े भाई रहते थे और नीचे होटल हुआ करते थे .कभी वहां चंद्रलोक होटल खुला और फिर कई होटल आते जाते रहे, कुछ अच्छे भी चले थे और उनसे सूने चौक में रौनक भी रही. उनकी बगल में अठूर के एक असवालजी सुनार थे और उनका एक लड़का प्रेम सिंह था, वो एक दम हीरो जैसा था और हमारे साथ पढता था . बाजूवाले उनके दूसरे घर में नत्थू सुनार और गय्यूर फर्नीचरवाला किरायदार थे . गय्यूर से पहले उसमे एक ज़माने में ब्रह्मानंद भट्ट बंधु की किताबों की दुकान थी. ब्रह्मानंदजी बड़े मस्त- मौला और विनोदप्रिय इंसान थे , वो मेरी माँ को बुआ कहते थे,क्योंकि माँ की दादी पुजारगांव की थी और नानी का मायका सुमन चौक में नौटियालों के यहाँ ही था तो टिहरी के सारे नौटियाल फिर माँ के मै –मुमा थे . शुरू में पशुभाई वगेरा वहीँ लाला रामगोपालजी के पड़ोस में ही रहते थे . ब्रहमा भाई की मोटर दुर्घटना में दुखद मृत्यु के बाद व्यवसाय पशुपति भाई ने संभाला . उसने सुमन चौक में ही एक आलिशान दुकान भी बनाई और सेमल तप्पड़ में खूब बड़ा घर भी, उनके छोटे भाई जगदीश भट्ट वकील थे और उन लोगों की विशेषता व ताकत उनका संयुक्त परिवार था . पशुभाई दिखने में तो सीधा और शांत इंसान था लेकिन व्यापार के मामले में ? वह बिना डिग्री के भी किसी एम.बी.ए से अधिक तेज था और शहर का सबसे बड़ा किताब विक्रेता था
.बहुगुणाजी के दो भवनों के बीच में था मामू डाक्टर बडोनी का क्लीनिक था ,उसके पहले वहां रिसिराम भट्ट के पिताजी की पान की दुकान हुआ करती थी . बडोनीजी हमारे एक चचेरे मामा के साढू भाई थे तो इसलिए हम उन्हें भी मामू कहते थे, वे हमारे पारिवारिक चिकित्सक भी थे .वे बड़े जिंदादिल इंसान और मस्तमौला जीव थे, शौक़ीन व्यक्ति . टेहरी शहर में दूसरी मोटरसाईकिल शायद उनकी ही आई थी , राजदूत बाईक? कभी वो भी जमाना था कि, शहर में बस एक –दो सरकारी जीप ही होती थी और प्राइवेट जीप सबसे पहले विनय लोगों की ही आई थी,यू.एस. क्यू . 335 . डाक्टर बडोनी खेल हो या रामलीला ,सब में रूचि रखते थे, खिलाडियों को जलपान या भोजन भी कराते थे और विभिन्न आयोजनों के लिए अच्छा चंदा भी देते थे . उनकी दुकान के आगे शतरंज की बिसात भी जमती थी. जित्ती और महेंद्री के पिता , नारायण साही शतरंज के एक माहिर खिलाड़ी थे . डाक्टर साहब कभी क्रिकेट खेलते तो तो कभी फुटबाल मैच में रेफरी बन जाते और एक बार अपने गांव देवल की रामलीला भी टेहरी लेकर आए थे और उसमे पार्ट भी खेला था . उनके दो पुत्र टेहरी जल विद्युत् परियोजना में वरिष्ठ पद पर व एक राजकीय चिकित्सक हैं .क्या टेहरी थी वो और क्या दिन थे वो ?
उनके ठीक सामने थे मशहूर पैनुली ब्रदर्स, पुस्तक विक्रेता ,राजनेता और पत्रकार भी. उनके बड़े भाई परिपूर्णानन्दजी टेहरी रियासत के मुक्ति संग्राम के योद्धा ,स्वतंन्त्रता संग्राम सेनानी व सांसद भी रहे हैं और हमारे बचपन से ही देहरादून में रहकर पत्रकारिता करते थे. सच्चितानानंदजी बुद्धिजीवी व पत्रकार थे और समाजसेवा ,कांग्रेस व स्वामी रामतीर्थ मिशन भी जुड़े थे . वे हमारे ही मोहल्ले के निवासी और पिताजी के सहपाठी व मित्र भी थे . लघु भ्राता केशु मामू पत्रकार व थोडा मुंहफट थे, देहरादून में भी वो मेरे पडोसी थे और रोज घर आते थे व फिर टेहरी की चर्चा होती थी .उनकी दुकान के बगल में एक विशाल दरवाजा था, जिस पर लकड़ी की नक्काशी थी व उसके उपरी भाग में लकड़ी के हाथी भी बने थे . पैन्यूली बंधुओं के दोनों बेटे आज देहरादून में एडवोकेट हैं .
पैन्यूली बंधुओं के पडोसी थे लाला रामगोपालजी अग्रवाल. हर जन्माष्टमी और शिवरात्रि पर हम उन्हें शिवमंदिर में होनेवाले कीर्तन के आयोजनों में व्यस्त देखते थे, वे शायद रामलीला के आयोजकों में भी थे .उनके लड़के वकील बचनलालजी और दुसरे मदन भाई थे ,जो पिता के साथ दुकान में हाथ बंटाते थे .वकील साब थोडा तल्ख़ मिजाज , मुंहफट व सिगरेट के शौक़ीन थे .पिता के मित्र भी थे. मदन भाई ने बाद में एक आटा चक्की भी खोली , जर्सी गायें भी रखी. वकील साहब का बेटा अरविन्द बाद में हमारे साथ भी पढ़ा व उसका एक मेधावी छोटा भाई भी था और मदन भाई का लड़का मनोज है . पुंडीरजी के मुताबिक सूना-चौक पैन्युली बुकसेलर्स की दुकान से पीछे का हिस्सा ही था, जहाँ कभी एक विशाल बरगद का वृक्ष होता था और उसके नीचे घास –लकड़ी बेचनेवाले बैठे रहते थे ,बाद में बरगद टूट गया और वहां पीपल का पेड़ लगा दिया गया और भैरो के छोटे मंदिर को भी पक्का कर दिया गया व बाद में उसके आगे एक –दो खोखे भी डाल दिए गए थे और सड़क के उस पर ऋषीराम का पान का खोका भी था. वो हमारा बचपन का सहपाठी था और मै उसके यहाँ बैठता व सिगरेट भी पीता था. राघू. बोकरी और खड्कू का भी वह प्रियस्थल था. गय्यूर की बगल में सत्येसिंह के बड़े भाई राजू की पान की दुकान और रामपुर –डोब के सुंदरु के पिता का होटल था .
तब थी सेठ लाला विनयकुमार की सोने –चांदी की प्रसिद्ध दुकान जो पहले उनके घर के बाहर होती थी. विनय के पिता लाला लक्ष्मीचंद जैन एक पढ़े –लिखे व्यक्ति,लाईफ, टाईम्स व रीडर्स –डाइजेस्ट पढनेवाले, परिष्कृत रूचि और नफीस व्यक्तितव और टेनिस खेलने के भी शौक़ीन थे. वे खानदानी रईस थे और लोग उनको वैसी इज्जत भी देते थे . वे सचमुच में बैंकर्स एंड सर्राफ थे,जैसा की उनके साईंन बोर्ड पर लिखा था और सोना बेचने का सरकारी अधिकार/ एकमेव लाइसेंस प्राप्त थे . वे सुबह चार बजे उठकर मॉर्निंग –वाक के लिए सिमलासू तक जाते थे व 50 साल तक नियमित रूप से मॉर्निंग –वाक के लिए गए होंगे . उनके पिताजी लाला फतेचंद का नाम पूरे जिले में मशहूर था और 1970 – 80 तक भी कभी –कभार तसल्ली के लिए विनय से ये पूछता था कि “ लाला फतेचंद की दुकान, यही है साब ” ? लोग उनका नाम पूछकर विनय की दुकान में आते थे . विनय के यहाँ की नथें टेहरी के बाहर श्रीनगर व देहरादून तक प्रसिद्ध थी . विनय को लोग प्राणीजी भी कहते थे ,क्योंकि यह शब्द उसका तकिया कलाम था .उसकी दुकान के पते में भी सुमन चौक ही लिखा होता था ? अपना विनय की दुकान में काफी उठाना –बैठना रहा .बुधवार को बाजार की छुट्टी रहती तो प्राणी चंबा चल देता ,वहां भी उसने एक दुकान खोली, फिर नई – टेहरी में भी खोली , वो भी तब जब टेहरी, टेहरी में ही थी और भरी –पूरी थी. विनय के बड़े भाई सुरेश चंद जैन, शहर की एक जानी –मानी हस्ती थे .
सुमन चौक का आलम ये था कि वहां गाय और आदमी एक साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करते थे . विनय के सामने थे लाला दीवानचंद, थोडा बहुत बिसातखाना, टाफी ,चाकलेट ,रिब्बन पर उनकी सबसे बड़ी खासियत थी उनकी सोडा बनाने की मशीन. बाटलिंग और पैकिंग ,दुकान में ही होती थी और फिर गर्मियों के महीने में उसकी धूम रहती थी – बर्फवाला ठंडा सोडा ,कई फ्लेवर में . उनका लड़का सतीश घई बचपन से अपना वर्गमित्र था. उसकी बगल में लकड़ी का खोखा था, जहाँ शुरू में गय्यूर रहा और लाला मैन्गामल के लड़के कुलदीप भाई ने कुछ दिन एक प्रिंटिंग प्रेस भी चलाई ? सतीश घई उर्फ़ बिल्लू की बगल में रामपुर-डोब के बादर सिंग भाई की आलू के गुटके / छोल्ले की मशहूर चाय और भुज्जी की दुकान थी . जख्ख्या के तुडके और भुटी लाल मिर्च से सजे उन गुटकों का पूरे शहर में कहीं कोई मुकाबला नहीं था . साथ में उनके गाव के पहाड़ी पालक, राई, सुय्नंचणा, सरसों / लैय्या की भुज्जी और उसका सवाद ? वाह, इस भुज्जी की लाजबाब रसाण का कहीं कोई तोड़ नहीं था ? नजिमाबाद की गोभी, टिन्डे, पालक भला इसका क्या मुकाबला कर पाते ? शहर में स्थानीय सब्जी की आपूर्ति का दूसरा केंद्र टिपरी गांव था . वो लौकी, तोरी, चचेंडे, कद्दू और ककड़ी के लिए प्रसिद्ध था तो दूध के लिए नंद गांव- बडकोट के दूधवाले और उनकी साईकिल ? बादर सिंग भाई की दुकान में हमने कभी स्वामी बलबीर शाही को, हाथ में चर्खेवाला तिरंगा झंडा लिए तो कभी सफ़ेद धोती में लिपटे और खडाऊ पहननेवाले संस्कृत के विद्वान और संस्कृत स्कूल के आचार्य श्रीदेव शास्त्री को आलू के गुटके खाते हुए देखा था . शहर में भवन और सड़क निर्माण के लिए भिलंगना का जंगार तरके प्रतिदिन आनेवाले मनुष्यों से सुबह –शाम उनकी और जीतसिंह की दुकान में खूब चहल –पहल रहती थी ?
विनय की बगल में , भाई जगदीश अग्रवाल की जूते की दुकान थी. उन्हें लोग अग्रवाल कम और बाटावाले के नाम से अधिक जानते थे . उनको लोग सीधा जगदीश बाटावाला ही बोलते थे . बाटा कंपनी के मालिक और उनके अलावा शायद ही ये क्रेडिट किसी को मिला हो ? बाद में उन्होंने सेमल तप्पड में एक सिनेमा हॉल “ लक्ष्मी टाकिज ” भी खोला, जो कभी चला और कभी बंद हुआ . शुरू में उनका भाई शांती उर्फ़ रामभरोसे वहां बैठता था और हम उसकी मित्र मंडली में थे तो फिर किसका टिकट और कैसा टिकट ? बाद में बेटा राकेश मालिक और छुन्नी मामू गेट पर तो फिर भी वही सुविधा बरक़रार ,अंत तक. शुरु मे चचा रग्घू गैरोला ,ताहिर बेग , पौड़ी के रावत ठेकेदार आदि और बाद में उत्तरकाशीवाले कुडीयालजी व सिंह साहब भी इसमें पार्टनर रहे थे . नई पिक्चर लगने से पहले रात को उसकी रील जोड़कर फिर प्रीमियर होता था और मुफ्त रहता था. उनके बाद कठुली के पंडित उमादतजी की मिठाई की दुकान थी, उनका लड़का सुदामा हमारे साथ पढता था. काउंटर पर रखे उनके दही के कुंडे को यदि गिलास में चवन्नी का दूध लेने आये किसी विधर्मी बच्चे ने छू दिया तो फिर उनकी बडबड चालू , बाद में वहां हमारे मोहल्ले के सीताराम भाई ने सब्जी की दुकान खोली, सीताराम भाई मकड़े की बीमारी की दवा “ हरयाळ ”, देने के लिए भी दूर –दूर तक प्रसिद्ध था और डाक्टरों के पास इसका कोई ईलाज होता नहीं था. बाद में बेटा प्रकाश ने समाजवादी पार्टी की तर्ज पर भाईजी को घर भेजकर , उपन्यास किराये पर देने ,बेचने व कॉम्पिटीशन मास्टर / सक्सेस जैसी मैगजीन, रोजगार समाचार जैसे अख़बार की दुकान खोली ताकि लोग अपना सामान्य ज्ञान बढाकर, किसी स्पर्धात्मक परिक्षा में सफलता हासिल कर सकें ? वैसे बदलते समय के साथ ये विचार तो अच्छा था पर शायद जादा नहीं चला नहीं ?
प्रकाश की बगल में एक पंसारी की दुकान थी, वो सलाम के पिता थे, कय्यूम –हारून भाई के चाचा, मुजम्मिल नेता और यासिन के भाई, कुरेशी लोग . वहां ग्राहक कोई नहीं और मुस्लिम मोहल्ले के युवाओं का जमघट जमा रहता था .उनके समुदाय के कुछ लोगों की दुकानें ऐसी भी थी, जहाँ दिनभर बिक्री हो न हो पर मियांजी दुकान समय पर खोलते और बंद करते थे . बिसातखाना ,आतिशबाजी और बंदूक, इसमें मुस्लिम समुदाय की ही मोनोपाली थी. उनकी दुकान के आगे तुन के पेड़ के नीचे दो- तीन छोटी –छोटी बिसातखाने की फड़ भी लगती थी जिसमें कभी जहूर बेग के पिता , कभी इश्तखार के पिता और एक पतले, गोरे, सफ़ेद दाढ़ीवाले बुजर्ग दुकान लगाते थे और पीछे ही जहूर के चाचा अशफाक बेगजी की लाइसेंसी बंदूक और राशन की दुकान थे .राशन की जगह हम कंट्रोल की दुकान शब्द का अधिक प्रयोग करते थे. हमारी भी वही दुकान थी. अशफाक बेग अपने समुदाय के प्रतिष्ठित सदस्य थे, उनके एक भाई बिजली विभाग में थे ,तो ताहिर बेग ठेकेदार और नेता भी. उनकी एक तरफ दयाल सिंह भाई की ड्राईक्लीन की दुकान थी. उनके यहाँ यशवंत व जगत सिंह पडियार, कुलेंद्र बहुगुणा ,सुरेन्द्र पछमी , मदन कुकरेती, बिल्लू बहुगुणा आदि को हम शाम को गप्प मारते देखते थे . वहां बाद में भंडारी होटल भी खुला , उन्होंने स्वयं भी होटल खोला. उसकी बगल में एक दुकान थी, जहाँ बर्तन और लोहे का काम होता था, मुझे पता नहीं कि वो निजाम की थी या हस्सू की या अम्बू लोगों की पर हमने सबको वहां काम करते देखा था ? उसकी बगल में थे लाला हरिराम, हमारा किराने का सामन वहीँ से आता था, अब के हिसाब से वो दिव्यांग थे पर किसी का हाथ पकडलें तो छुड़ाना मुश्किल, मजाकिया आदमी, उनकी और लिप्टन वाले अनसूया प्रसाद डोभाल की नोकझोंक बड़ी मजेदार होती थी बेटा से लेके ------- तक.
उसके सामने पदम् सिंह चाचा का चाय का होटल था, बच्चों के वह ---- चचा थे. छोटा कद, गोल-मटोल ,बड़ी –बड़ी मूछें और मस्त –मौला स्वभाव ? लड़के वैसे ही मिठाई का भाव पूछते और चचा एक टुकड़ा टेस्ट करा देते “ बेटा खा के देख ” ? उनके होटल में दो दरवाजे थे और पता नहीं कितने लड़के ,कितनी बार पीछे के दरवाजे से खा पीके, बिना पैसे दिए खिसके होंगे पर चचा के चेहरे पे न कोई शिकन न मलाल. उनके बाद उनके भाई जोधसिंह और कुशाला भाई ने बरसों वो होटल चलाया. उनके पीछे के भाग में भी दो दुकाने थी ,जिसमे कभी कबाब –मछली की दुकान थी तो कभी तनवीर मिस्त्री रहा और कभी नियाज बेग ने टेलर की दुकान खोली थी. आगे बगल में बल्लामल एंड संस की दुकान थी, सड़क के उस पार भी उनकी बर्तनों की दुकान थी, बाद में सोना –चांदी भी बेचा और साथ में पेंट- सरिया भी . लछमी और प्रेमचंद जैन, दोनों भाई बर्तनों की दुकान में बैठते थे तो उनके पिता इस पार. सुनते है बल्ला लाला एक बार मरने के बाद जिन्दा हो गए थे. बाद में ये दुकान कई साल गोदाम भी रही और आखिर में प्रेमचंदजी के लड़के सुभाष ने इसे फिर से खोला और चलाया भी ?

पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार &&&&&&&&&&
बल्लामल जैन की बंद पड़ी दुकान में , सियाराम ने कुछ समय तक अख़बार का काम भी किया था. उसी दुकान के आगे कई बार बैठे देखा था “ राजमती ” को , कई बार तो उसको देखकर मुंह फेर लेना पड़ता था ? बेचारी पागल औरत , भरी पूरी जवानी लेकिन न तन का होश और न दुनियादारी की फिकर. सब कुछ धुल -पुंछ गया था उसकी जिंदगी की स्लेट से --- रिश्ते –नाते ,घर –परिवार. जब अपनों ने त्याग दिया था तो फिर अब गैरों के भरोसे ही थी और उनके ही हवाले ? राजमती के जीवन में अब सिर्फ दो ही शब्द शेष रह गए --- भूख, पेट की ज्वाला ? दुनियादारी से यदि अब उसे कुछ मतलब है या लेना-देना है तो वह है केवल खाना और बाकी मौसम की मार और अपमान व तिरस्कार आदि को सहना है ? कभी वह भडभुजे की दुकानवाले चौराहे पर जाकर बैठ जाती . गंदगी और सफाई उसके लिए दोनों एक समान , किसीका कोई अर्थ नहीं, मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, उसके साथ ही उसके खाने पर टूट पड़ी हैं और यदि राजमती के पास कुछ नहीं मिला तो उसके बदन को नोचने लगती हैं . अब इन्हें कौन समझाए कि, यार पागल को परेशान मत करो ?
राजमती अपना हाथ फैलाये जिस भी दुकान के आगे खड़ी होती ,वो उसे खाने को कुछ दे देता .उसके गिलास में चाय, जलेबी, पकोड़ी या पैसे .किसी दुकान का मालिक कभी अपने नौकरों को उसको नहलाने के लिए पाईप से पानी डालने को कह देता, कोई पहनने को कुछ दे देता . किसी ने उसके बाल भी बाब –कट काट दिए थे . उसकी नाक में चांदी की एक छोटी सी नथनी भी थी . अनेक बार वह विवस्त्र होकर बाजार में दौड़ लगाने लगती या कहीं बैठी रहती थी तो अधिकांश लोगों की निगाहें शर्म से झुक जाती थी. सुभाष की दुकान के आगे काफी समय तक एक 15-16 साल का एक पागल लड़का, जिसे छोकरों ने “ मस्ता ” नाम दिया था और वो गूंगा था ,वह भी राजमती की तरह डेरा जमाए रहा . कभी चूने की खाली बोरी में घुस जाता और थोड़ी देर बाद किसी हिम मानव जैसा नजर आता और फिर पुलिस इंस्पेक्टर रतन सिंह पंवार और फौजी कीर्ति के पिता जोधा सिंहजी की मिठाई की दुकान के नौकर तरस खाकर उसको पानी डालकर नहलाते ताकि फिर बेचारा दिनभर खजाते न बैठे ?
इनके अलावा 76-78 में एक बेचारे डोभालजी भी देखे . वो साफ़ –सुथरे रहते थे और कभी जंगलात में थे, कई बार नत्थू सुनार की दुकान के ऊपर के खाली बरामदे में आकर बैठ जाते और घंटो आपस में ही बडबडाते रहते ,कई बार ऋषिराम की दुकान में सिगरेट मांगने आते, कुत्तों को पुचकारते रहते और अक्सर लाल कुत्ती और काली –कुत्ती की बात करते थे ?एक और पागल जैसा दिखनेवाला और पैबंद जैसा चोगा पहनने वाला पागल भी शहर में एक बार आया ,वो किसी को कुछ नहीं कहता . सुनते थे वो बड़ा अच्छा रफूगर था और बाद में पता चला की कहीं बहार पकड़ा गया और सुना कि पाकिस्तान का जासूस था . यहीं तोंण के पेड़ के नीचे गांव से आए कुछ लोग काफल और चूले भी बेचते थे .
सुभाष के बाद था मुकेश लाला का फिलिप्स रेडियो और उसके भाई नरेश भाई का फोटो स्टूडियो ? दरसल में ये लाला लक्ष्मीचंदजी के बड़े भाई लाला जुगमंदरदासजी की दुकान थी. जिसके साईन बोर्ड पर कभी लिखा हुआ था, गिरनारीलाल एंड जुमंगदरदास जैन . गिरनारीलालजी शायद फतेहचंदजी के भाई रहे होंगे क्या ? जुगमंदरदासजी यदि चाहते तो पहाड़ के टाटा होते ? उस ज़माने में ऐसी कौन सी एजेंसी थी जो उनके पास नहीं थी ? दवायें, लिपटन चाय, सीमेंट ,पाईप, घड़ियाँ , रेडियो ,टी. वी. और न जाने क्या –क्या ? मुकेश लोग लगभग बारह भाई –बहन थे. हमारे समय में उसके दो बड़े सौतेले भाइयों, जग्गी और सिताब का ऋषिकेश में अच्छा कारोबार था और एक लाला इंदरसेन जैन कांग्रेसी लीडर व ठेकेदार थे व उनकी एक गाड़ी, नंबर यू.एस.क्यू 237 और एक ट्रक भी था, 7615. इंदरसेन जैन मेरे पिता से एक –दो साल बड़े थे और उनके पिता जुगमंदरदासजी बाद में पिताजी के मित्र हो गए थे . मास्टरजी और कवीजी का वहां बैठना व बाद में बेलाराम कपिल साहब की भी, कई लोगों को याद होगी ? . वकील साहब ध्यानीजी भी वहां बैठते थे तो कुछ देर के लिए एडवोकेट वीरेंदर दत्त सकलानी, प्रेम दत्त डोभालजी, सच्चितानंद पैन्यूली , वंशीलाल पुंडीरजी , बचनलाल वकील और और भी किसी लोकल भद्रजन को आपने भी देखा हो ? लाला जुगमंदरदास को देखकर मुझे अंतिम मुग़ल बादशाह याद आता. अपने तख्तेताउस पर विराजमान ताउजी, हाथ की उँगलियों में फंसी कैंची की सिगरेट, कांपते हाथों में थरथराती माचिस की तीली की लौ और हर फिक्र को धुंए में उड़ाते ताउजी, अपनी बादशाहत और सल्तनत को गवाने का न कोई गिला न शिकवा ? और हमारा मित्र मुकेश एक नंबर का क्रैक, अपनी धुन में सवार बोले तो किसी दुसरे की सुने नहीं ?
उनकी बगल की बंद दुकान सुनते थे शायद किसी लाला विशम्बर नाथ की थी . कौन थे वो, कुछ पता नहीं ? लेकिन उसके बरामदे में जरूर देखा था , दोस्त खन्नू के पिता को , शहर में वो अजीज – नालबंद के नाम से प्रसिद्ध थे क्योंकि वो घोड़ों के पैर में नाळ लगाते थे . घोड़े तो अधिकतर राजाओं के ज़माने में ही रहे होंगे पर हमारे समय में खच्चरों की ही बहुतायत थी , कुछ गांव वालों के लद्दू खच्चर और बाकि शहर में रेत –बजरी ढोनेवाले ? माफ़ करना हमारे यहाँ गधे नहीं थे, धोबियों के पास भी नहीं थे और कभी कुम्हारों के यहाँ रहे होंगे तो पता नहीं ? बस एक नाम जरूर सुना था कभी किसी बुजुर्ग से नागा कुम्हार ? बाद में वो कभी-कभी वहीँ पर बिसातखाना भी लगाते थे और उस समय 80 साल के तो रहे होंगे ? वैसे उनके बेटे की भी सामने एक दुकान थी लेकिन वो अधिकतर ठेकेदारी करता था . कालांतर में उसके बेटे सफीक ने ये दुकान खोली और चलाई . अजीज साहब शकूर भाई और रऊ –कादिर के भी दादा थे. उनके बाएं हाथ पर था गाँधी आश्रम उर्फ़ खादी भंडार, और लाला गंगा बिसन की परचून की दुकान. खद्दर के कपड़े तब खाली कांग्रेस के नेता पहनते थे और खादी के कुरते –पैजामे काफी पसंद किये जाते थे. शहरवाले वहां से रजाई –गद्दे या उनके खोल भी खरीदते थे. वहां काम करनेवाले सभी लोग बाहर के होते थे . वहां एक ज़माने में एक भाकुनीजी थे और उनका लड़का मंगल हमारे साथ पढता था, उसे चिढ़ाने के लिए हमने एक तुकबंदी की थी , “ मंगल पकड़ चवन्नी चल जंगल ”.
डाक्टर गैरोला एक जानेमाने चिकित्सक थे . टेहरी में आर.एस.एस और बीजेपी के संस्थापक शायद वो ही थे , खासपटटी में सिंगोली उनका गांव था . गर्मियों के मौसम में उनकी दुकान बच्चों से भरी रह ती थी. अधिकतर बच्चे दांत निकलने की वजह से लस्त –पस्त रहते थे . दादरा निकलना दूसरी समस्या होती थी ,लसीकरण तब था नहीं ? डाक्टर साहब के यहाँ भी शाम को मंडली जमती थी गपसप ,एस .डी .आई बड़ोनिजी, कामरेड राजेश्वर उनियाल ,जिला परिषद् के सत्यनारायण उनियालजी और और भी कई लोग जमते थे . डाक्टर साब टेहरी में आर.एस .एस और बीजेपी के सबसे बड़े शक्तिस्तम्भ थे . मई उन्हें जीजाजी कहता था और दुर्गा की माँ को दीदी .
डाक्टर साहब के सामने थी, माफीदार सज्जनानंद सकलानीजी की दुकान, जड़ी –बूटी, आयुर्वेदिक काढ़े ,हरडी –बहेड़ा ,सेंधा नमक और मुलेठी ? बाद में हमें पता लगा कि, इस प्रकार की दुकान को ही पंसारी की दुकान कहते हैं . उनकी दुकान में ग्राहक भी कोई इक्का –दुक्का ही दिखाई पड़ते थे .माफीदारजी रोज पढियार गांव से पैदल चलकर टेहरी आते व वापस जाते थे . बाद में जाना की वो काफी मालदार थे ,उनकी गाड़ियाँ भी थी और बाद में उन्होंने अपनी संपत्ति का ट्रस्ट बना दिया था और कई छात्रों को पढने के लिए वजीफा दिया और अन्य जरूरतमंदों की भी मदद की. उनके पहले एक दुकान थी और उसकी बगल से पुलिस थाने का रास्ता जाता था, शायद वही बिस्सू –हलवाई की प्रसिद्ध मिठाईयों की दुकान थी कभी, जो हमारे बचपन में रही होगी और बाद में हमने उसके बारे में सुना ही सुना था . हाँ थानेवाली गली में अलबेला जलजीरा व चाटवाले + पेंटर + साईकिल की दुकान जरूर देखी थी और उसके ऊपर एक अठूर के टेलर मास्टर की दुकान और बगल में एक लकड़ी का टाल ,जो काफी बाद में खुला था .
दीवानचंदजी की दुकान से लेकर प्रेमचंद –लछमी जैन तक की दुकाने शायद लाला नेकमल की परिसंपत्ति थी . मुकेश –विनय के घर के सामने का भी एक बड़ा भवन भी उनका ही था, जिसमें तहसील के कर्मचारी, सरकारी डीजीसी / वकील और पुलिस के सर्किल इन्सपेक्टर आदि रहते थे . सुना है लाला नेकमल जितने बड़े मालदार थे उतने ही बड़े कंजूस भी थे. वो कभी किसी को एक पैसा दान नहीं करते लेकिन कपड़े के थान में कई नोट छुपा कर रखते और जब ग्राहक पहले कपड़े का वह थान दिखाने को कहता और फिर लाला के थान खोलने से पहले कोई और थान दिखाने को कहता तो लाला ग्राहक के कपडा लेने के बाद उसे पहलेवाला थान दिखाते और उसमे छुपे नोटों को देखकर ग्राहक भौचक्का रह जाता. तब लाला हँसते हुए कहते, अरे तेरी किस्मत में नहीं था यार ? ऐसे ही सुनते हैं कि, एक बार किसी यात्रा पर जाने से पहले उन्होंने एक पंडितजी से कहा कि, यार मेरे तुलसी के गमले में पानी डालते रहना . लालाजी वापस आए तो तुलसी सूखी हुई . पंडितजी से कहा यार तुमने पानी नहीं डाला दोस्त ? पंडित लगा बहाने मारने, सफाई देने . लाला ने कहा की को बात नहीं पंडित और तुलसी का गमला उठाकर जमीन पर पटक दिया, पंडित उसे लाला का गुस्सा समझकर दर गया, लेकिन जब मिटटी के साथ रुपये –पैसे जमीन पर बिखरे तो पंडित की आखें आश्चर्य से फ़ैल गई . लाला ने हंसकर कहा, यार तेरी किस्मत में नहीं था यार पंडित तो अब मै क्या करूँ, पानी डालता तो गमले की मिटटी बहती और सिक्के चमकने लगते ? सुना है कभी –कभी तो वो सोने की असर्फी भी ऐसे ही रख देते थे ? अपने शहरवालों को जब किसी को कंजूस ठहराना होता तो उसे “ नेकमल की औलाद ” के नाम से संबोधित करते थे. सुनते हैं आधा टेहरी उनकी थी, उनकी एक लड़की थी जो अविवाहित या निसंतान ही मर गई और लालाजी की सारी संपत्ति सरकार के खजाने में जमा हो गई .
डाक्टर साहब की दुकान का पडोसी था एक जैन परिवार, बड़ा परिवार, फर्म का नाम था रामप्रसाद मूलचंद जैन,बड़े आढती . रामप्रसादजी को तो मैंने नहीं देखा पर ताऊ मूलचंद को बहुत समय तक देखा और हमारे दोस्तों ने उनको खूब तंग भी किया . मूलचंदजी अविवाहित थे पर उनके तीन भतीजे थे मित्रसेन, लक्खी –लाला और जुग्गी चचा. तीनो के भरे पूरे परिवार, हमारे समय में सबका स्वतंत्र कारोबार था . जुग्गी चचा की शुरू में बर्तनों की दुकान थी व बाद में पीतल के साथ –साथ में सोना –चांदी भी बेचने लगे और मित्रसेन व लक्षमीचंद का किराने का अलग –अलग धंदा था .मित्रसेनजी के 5 लड़के थे. राजू, नरेश, सुरेश, अरविंद और सबसे छोटा पप्पी. एक कन्या भी थी . मित्रसेनजी मृदुभाषी और व्यवहार कुशल वणिक थे तो ताऊ मूलचंद अक्खड़, बच्चों को अक्सर डांट देते . उनकी दुकान की एक ख़ासियत थी कि, सामान लेनेवाले ग्राहक, दुकान में लकड़ी की एक बड़ी ट्रे में रखे भुने चने उठाकर खा सकते थे पर ताऊ यह देखता रहता कि सामान लेनेवाला सामान भी ले रहा है या खली भाव पूछकर फ़ोकट में चने उठा रहा है ,ऐसा नहीं कि पाच पैसे की मुर्गी और दस पैसे का मसाला ? बच्चों के लिए ये चने, वहां से सामान लेने के लिए एक प्रलोभन था ताऊ रात में दुकान के बरामदे में मच्छरदानी लगाकर सोता तो कभी छोकरे उसकी चारपाई के पहिये पर कुत्ते बांध देते और फिर एक बम फोड़ देते, अब क्या नजारा होगा आप खुद कल्पना करें ? कभी यदि आसमान में बादल हैं तो मच्छरदानी के ऊपर बरफ का टुकड़ा रख देते और इसी प्रकार की कोई न कोई शैतानी करते रहते थे . दो भाईयों की दुकान तो अगल-बगल थी पर चचा जुग्गी सड़क के उस पार सामने थे.
अहिंसा परमो धर्मः पर चचा की लंबी –चौड़ी काया और जोरदार गर्जनावाली आवाज व बड़ी –बड़ी सुरमा लगी आँखे देखकर तो अंजान आदमी डर जाए. अपनी जवानी में चचा ने बड़ी मस्ती और शरारतें की होंगी ये उनकी बातें और अनुभव सुनकर पता चलता था ? वैसे वो जब धंधे की भाषा बोलते थे तो बड़ा मीठा बोलते थे ,बाबू और गुरूजी लगाकर .एक बार बोले , यार कल पता नहीं किस बात पर बहस में बुड्डे का हुक्का तोड़ दिया तो फिर एक महीने तक अपनी गली से बाहर आके बजार –बजार संगम रोड व थाने के पीछे से होकर दुकान आते और चुपके से अपनी दुकान में घुस जाते . लेकिन उनका चाचा भी उन्हें बहुत चाहता था. एक बार बाजार में फ़ैल गए एस.डी. एम के मत्थे लग गए ,दिवाली का मौसम और फिर होना क्या था, आप खुद ही अंदाज लगाओ ? पहले किसी ज़माने में वो सोमरस के शौकीन थे और कई बार हंगामा खड़ा कर देते .बाद में वे शिव की शरण में आ गए . एक बार गाड़ी पर नगर –सेठ लिखवा दिया और लुट गए, एक बार सब छोड़छाड़ कर कालसी चले गए और कई दिन वहां डटे रहे.गायों को आता खिलाना और मछलियों को चारा, ये उनकी दिनचर्या के अंग थे . मै और प्रदीप पैन्यूली ने चचा के साथ काफी वक्त गुजारा प्रमोद सुशील और रज्जी नाम के उनके तीन पुत्र थे एक लड़की भी .उनके पास मनमोहन जैसे वफादार काम करने वाले और बच्ची जैसा ड्राईवर कम अंगरक्षक भी था. उनकी एक अलग ही छवि थी जो अन्य लालाओं से थोडा हटके थी ?

पुराणी टीरीं की @@@@ वसंत पंचमी ?
ऐगे रितु वसंत की ,पूस ऐगे सुवा , किसी पहाड़ी कवी ने लिख तो दिया लेकिन मौसम के हिसाब से कुछ ठीक नहीं लगता है ,क्योंकि पूस में किसका वसंत और कहाँ का वसंत ? वसंत पंचमी वैसे माघ में आती है, माघ मतलब हमारी भाषा में मऊ का महीना. जिसके बारे में ये लोकोक्ति भी है कि, “ आधी मऊ--------- कांबली घौ ” अर्थात सर्दी का प्रकोप कम होने की शुरुआत .बचपन में एक कविता सुनी थी , “ जनवरी दिखाती शीत कड़ी फ़रवरी भी उसी में आ जुडी पर मार्च पलट देता काया ” ? मार्च का मतलब फागुन, असल में वसंत तब ही अपने यौवन पर होता है, मंद शीतल सुखकारी पवन. मार्च का दूसरा अर्थ, यू .पी .बोर्ड की परिक्षा भी होता है .
हमारे मोहल्ले में इसका मतलब , कब्रिस्तान में आम के पेड़ के नीचे खुली हवा में बैठकर पढ़ते और रट्टा मारते बच्चे ? आम भी बौरा गए हैं ,कोयल भी कूकने लगी है, आसमान में तोतों के झुण्ड नजर आने लगे हैं . कुछ बच्चे कब्रिस्तान के नीचे आछरी घाट या घट्टो घाट में किसी छोटे पत्थर के उपर बैठकर बैठकर पढ़ रहे हैं तो कोई किसी बड़े पत्थर के नीचे, उस पर टेका लगाकर बैठके पढ़ रहा है . ये सब बोर्ड के इम्तिहान के 20-25 दिन पहले से चालू हो जाता था, बच्चे ज्यादातर हमारे मोहल्ले के आसपास के ही हैं . वैसे पढ़नेवालों के लिए तो घर का कोई कोना ही पढने के लिए काफी है .फिर भी कुछ को लगता है कि एकांत ,खुली हवा और हम जैसों का क्या ? हमें पढाई के नाम पर लहरें गिनना ,पानी में चपटा पत्थर मारकर उसे तैराना और ये देखना कि, उसने कितनी कलाबाजी खाई और नदी के पार पहुंचा है या नहीं ? ( ऐसी भी तो यार कोई प्रतियोगिता हो सकती है ,जैसे कि आजकल घास काटने की हो रही है ? जाओ अपने –अपने घर से 4-4 पत्थर तराश कर लाओ और नदी के किनारे आ जाओ . ) अंजुली में पानी भरना और फिर उसे गिराना, पानी में आसन जमाए किसी पत्थर की जड़ के आसपास छोटी - छोटी मछलियों को तैरते हुए देखना ,पानी में पैर डालकर बैठना , फिर माचिस की खोज में भटकना या रेत - पत्थर लेने आए किसी खच्चर वाले से एक बीड़ी मांगना ? माचिस जेब में बजती है तो उसे घर में पकड़े जाने की डर से लड़के जेब में रखते नहीं थे ? कपडे धोनेवाली कोई माँ –बेटी हमें देखती तो सोचती कि, देखो छोरे कैसे पढ़ रहे हैं ? लेकिन कुछ बच्चे पढाई के प्रति वाकई सीरियस होते और सचमुच में पढ़ते थे, अपने नोट्स देखते थे और फिर आँख बंद कर उन्हें रटते थे . और कई जो सालभर न पढके, कम मेहनत से सफलता प्राप्त करने का सपना देखते थे, वो किताबों के कम और गेस –पेपरों के भरोसे ज्यादा रहते थे ? गेस –पेपरों में किसी साल विजय ब्रांड अधिक डिमांड में रहता तो कभी दिनेश,रमेश या सूरज का बोलबाला रहता था ? नक़ल के लिए छोटी –छोटी चिट या पर्चियां बनाने के लिए भी घर से बाहर का माहौल ही अधिक उपयुक्त होता था ?
हम सोचते, चलो आज तो वसंत पंचमी है तो फिर त्यौहार के दिन आज क्या पढना ? घर में भी माता –बहनों ने तो कल ही बाजार से पीला रंग लाकर किसी ने अपना कुरता ,किसी ने सलवार तो किसी ने चुन्नी और भाइयों के लिए भी सफ़ेद रुमाल पीले रंग में रात में ही भिगोकर, निचोड़कर, तार पर सुखाने के लिए डाल दिए थे .
पीला रंग वसंत का प्रतीक है तो उसका स्वागत भी पीले रंग से ही किया जाता है . सूखी डालों पर कोमल हल्के हरे, गुलाबी, लाल -पीले रंग की कोपलें फूटने लगी हैं . नव पल्लवित पत्तों का वृक्ष पर स्वागत है . लोग कहते बहार लौटकर आ गई है तो हमारे पहाड़ में लोग कहते हैं कि, मौल्यार आ गया है. कचनार की अनखिली कलियों और सेमल के फूलों ने कहा, ऋतुराज वसंत तुम्हारा स्वागत है.
पता नहीं ये उक्ति किसने कही, “ सखी ------ वसंत आया ” और सारे पहाड के घरों में भी पीले रुमाल और सुनहरे मीठे भात से, ऋतुराज वसंत का स्वागत किया जा रहा है , आओ वसंत, मेरे देश में पधारो, आज मेरे शहर में भी आओ मेरे दोस्त, आसपास के गांवों की माँ –बहनों की पाज़ेब की झनकार और चूड़ियों की छमणाट के साथ आओ, उनके चेहरों पर चमकती हंसी- ख़ुशी और चहकते स्वरों को साथ लेकर आओ, छोटे बच्चों की गूंजती किलकारियों के साथ आओ, हमारी टेहरी तुम्हारे स्वागत को आतुर है, सज्ज है . सबसे पहले लोगों को गंगा में डुबकी लगानी है तो फिर हर कदम संगम /गंगा-तट की ओर बढ़ रहा है. पहले गंगा स्नान होगा , सूर्य भगवान को अर्घ ,पितरों का ध्यान और जल और फिर बाकी हर्ष और उल्लास, आमोद –प्रमोद ? मनुष्य तो क्या आज तो देवी –देवता भी गंगा में नहाने का अपना मोह रोक नहीं पाए हैं ? देवताओं ने कहा ,चलो भक्तों आज सुरसरी के तीर ले चलो, पतित पावनी ,पाप विनाशिनी से मिलने का बड़ा मन है ,गंगा स्नान की कामना है और संग –संग तुम भी अपने पाप धो लेना ? तो फिर चल पड़े सब,दशों दिशाओं से,किसीकी डोली, किसी का छत्र , किसी की छड़ी तो किसी के निसाण या हथियार हैं ? साथ में शंख, रणसिंघे , घंटे –घड़ियाल की आवाजें है ,भक्तों का जयघोष है. किसी समूह में खाली पुरुष हैं तो किसी में नारियाँ भी हैं. धार से नीचे उतरते हुए लोगों का समूह , सब टेहरी की भागीरथी के तटकी ओर . दूर से ही वो अपने वाद्ययंत्रों से अपने आने का आभास दे रहे हैं. मेरे घर की छत से ये नजारा बड़ा आम था. इनमे से कोई तो गणेश प्रयाग से परले पार से नहाकर लौट जायेंगे. कुछ पेट्रोल पम्प के रास्ते से ही आएंगे और वहीँ से वापस लौट जायेंगे, उन्हें बाजार या मेले –ठेले से क्या लेना देना ,सिर्फ भक्ति और आस्था की संगम में डुबकी ?
और जो माता –बहनें ,दीदी –भुली या सखी –सहेलियां, एक हाथ में प्लास्टिक की कंडी लिए, दुसरे हाथ से एक –दूसरे का हाथ थामे या किसी बच्चे का हाथ पकड़े , भादुमगरी-चनाखेत से सुमनचौक होकर या बीच बाजार उतरकर अथवा लोहे का पुल पार कर बस अड्डे से शहर में प्रविष्ट हो रही हैं. उनकी पहली मंजिल सीधा संगम है. निकटवर्ती गावों से आये बच्चों का उत्साह और उनके चेहरों की रंगत पैदल चलने की थकान से, चेहरे से लिपटी धूल –मिटटी से, नाक से बहती सिंगाणे की धारी से और ठंड से थोडा फीकी पड़ गई है .
आज संगम की भीड़ और रौनक देखते ही बनती है. लाल ,हरे ,नीले ,पीले ,गुलाबी रंगों की बहार ऐसे छाई है जैसे सैकड़ों रंग –बिरंगे फूल एकसाथ खिल उठे हैं .एक अद्भुत छटा , अविस्मर्णीय दृश्य. चारों ओर हर –हर गंगे की ध्वनि के साथ उजागर होता हर्ष ,आनंद और पंचमी का उल्लास. आज का दिन, पर्व का दिन है .आज तो बस नाक बंद करके गंगा में सीधे डुबकी लगानी है एक ,दो ,तीन गोते ? लेकिन उसके लिए कमर –कमर तक पानी में जाते –जाते ही पैर सुन्न हो गए हैं, मानो जैसे कमर से नीचे का हिस्सा किसी ने शरीर से अलग कर दिया हो . जोश और जूनून काफी ठंडा पड़ गया है पर मन में भक्ति, श्रद्धा और आस्था का सागर भी तो हिलोर मार रहा है ?
हर –हर गंगे एक ,दो ,तीन, जितना जिसके वश में था, उसने फटाफट डुबकी लगाई और फिर सीधे किनारे की ओर दौड़. दांत किटकिटा रहे हैं , पैर भी सीधे न पड़कर आड़े –तिरछे ही पड़ रहे हैं , तन- बदन सब कांप रहा है, देह ठिठुरन से जड़ हो गई है पर मन में अपार संतोष है कि , चलो गंगा नहा लिए ,पंचमी नहा लिए ? पाप –पुण्य की कौन जाने ,कल की कौन जाने ,कल किसने देखा ? हे गंगा माई ,जगत जननी, राजा सगर के पुत्रों को तारनेवाली भागीरथी ,हमारा उद्धार करना माँ, हम पापियों को को भी तार देना, घर- परिवार में सबको राजीख़ुशी रखना माँ, सब यही सोच रहे थे और मन ही मन कह भी रहे थे. भईया सबसे पहले फटाफट गीले कपड़े बदले जांय. ओह ,अब बदन में थोडा जान आई , कुछ सकून मिला . चलो अब नहा –धोके, पवित्र होके गंगा को धूप, दीप, नैवेद्य, पिठाईं, गंगा को अर्घ, पितरों को पानी , सूर्य को अर्घ, ये सब काम निपटाए जाएँ ? ऐसे कम ही लोग थे जो कमर –कमर तक पानी में खड़े होकर जल चढाने की हिम्मत रखते थे ?
बच्चों ने पैर से पानी को छुआ तो उनकी हिम्मत जबाब दे गई . मैं नहीं नहाऊंगा, पानी बहुत ठंडा है ,उनकी मनुहार, तर्क,कातर विनती. पर माँ ,पिता या बहन के द्वारा उन्हें जबरदस्ती घसीटा जा रहा है , खींचकर पानी में डुबोया जा रहा है . एक डुबकी भी लगी तो चलो उतना ही काफी है. किसी को जबरदस्ती डुबकी लगवाई गई तो मुश्किल से खाली गर्दन ही भीगी कि खड़ा हो गया गया, डुबकी नहीं लगाने की जिद पर अड़ गया. बच्चे जोर –जोर से रो रहे हैं , वे चिल्ला रहे हैं ,हाथ छुड़ाकर पानी से बाहर भागने की कोशिश कर रहे हैं. कई तो बुरी तरह डर गए हैं , नाक में और के कान में पानी घुसने की दुहाई दे रहे हैं ? अब किसी की माँ या बहन उसके सर पर अंजुरी से दो –चार अंजुरी पानी डालकर सर गीला कर रहे हैं तो कोई रगड़कर उनका मुंह धुला रहे हैं, नाक जोर से सीं करने को कह रहे हैं . बच्चे ठंड से बुरी तरह कांप रहे हैं, दांत किटकिटा रहे हैं और पानी के बाह र आकर ,ठंड से सिकुड़कर जमीन पर उकडू होकर बैठ गए हैं .
आज आसमान में भी थोड़ा बदली है . काले –सफ़ेद बादल. बिना बरसात के बादल, स्नानार्थियों की परिक्षा के लिए आसमान पर उग आए बादल और धूप –छावं की आँख-मिचौलि के चलते गंगा तट का पूरा वातावरण अगरबत्तियों की महक से सुवासित है तो किसी ने नदी तट से थोड़ा दूर आग भी जला रखी है. औरतों के साथ उनके पति, भाई, दो चार गांववाले और रिश्तेदार भी हैं. मर्द नहाने के बाद सुलगती बीडियों के सहारे सर्दी को भगाने में लगे हैं .चलो जल्दी करो यार,फटाफट ,उनकी बस एक ही रट है . इस समय सबके मन में सबसे बड़ी एक ही इच्छा है कि, बाजार चलकर सबसे पहले कहीं गरमागरम चाय पी जाए ?
बाजार आज अपनी पूरी तैयारी और साज– श्रंगार के साथ सज्ज है . दुकानदारों के चेहरों पर अच्छी कमाई की उम्मीद का विश्वास है ? वे सुबह से ही अपना पिटारा और गठरी खोलकर एक –एक सामान झाड़ –पोंछकर चमकाने व करीने से सजाने में लगे हैं .उन्हें आज चाय पीने की भी फुरसत नहीं है ,बस लोगों की भीड़ जुटने से पहले किसी तरह जल्दी से दुकान लग जाए ? कई दुकानदार कल रात से ही आ डटे थे तो कुछ ट्रकों से सुबह –सुबह आ पहुंचे . स्थानीय पुरुषों को कोई खास चिंता नहीं थी, इतमिनान से दो –तीन बार आराम से चाय पीकर फिर गंगा नहाने जाएंगे, आज तो बिना साबुन के पुण्य –स्नान है . बाकि महिलाओं की तो आप कुछ मत ही पूछो, वो तो सुबह-सुबह ही और कुछ तो मुंह अँधेरे में ही नहा -धोकर आ चुकी हैं . घर के तार पर सूख रही गीली धोती इस बात की गवाही दे रही है . आज गृहस्वामिनी सुबह उठकर सबसे पहले नहाई और तब फिर चुल्हा जला, चाय भी उसके बाद ही पी गई ? आज तो भाई बार –त्यौहार है , साल भर का पर्व है ,फिर ?
जाओ जी बळ क्यों नहीं जा रहे हो नहाने , वे सुबह से पति को दो –तीन बार टोक चुकी हैं ? बच्चों को भी साथ लेकर जाना, गृहलक्ष्मी की सख्त हिदायत. आज किसी की ना –नुकर चलनेवाली नहीं है और मजेदार बात यह है कि, आज व्रत भी नहीं लेना है ? बेटी मेरा कुरता –पैजाम, कच्छा, बनियान तौलिया देखना तो जरा और मेरे आने तक एक जोड़ा प्रेस भी कर देना बेटी ? अब इसे एक पिता का आदेश समझो या अनुरोध ? बाद में खा –पीके दिन में एक चक्कर बाजार का मारना है बस ?
और जिनका गांव कहीं आसपास ही है तो अब चाहे वो मकान मालिक हों या किरायदार तो उनके यहाँ कल शाम से ही दो –चार मेहमान आ डटे हैं. घर में थोड़ा भीड़ –भिडक्का तो है पर गांव की बात ठहरी ,रिश्तेदारी की बात ठहरी और किसी ,किसी ने तो खुद ही आने न्योता दिया था . बस एक रात की ही तो थोडा परेशानी है ? और जिनके यहाँ रात टिकने के लिए कोई नहीं आया तो उनके यहाँ सुबह 9 -10 बजे या दिन में भी पांच –सात लोग हाजिरी दे सकते हैं ? वो बेचारे थोड़ी देर बैठकर व एक गिलास चाय पीकर, हालचाल पूछकर फिर चल देंगे .गांववाले भी किसी से कम नहीं हैं . गांववाले गरीब हैं तो क्या हुआ लेकिन किसी से कुछ कम स्वाभिमानी नहीं हैं. वो अपनी रोट्टी –भुज्जी साथ लेकर आये हैं , नहीं तो एक मुट्ठी झंगरियाल या घर की दाल लेकर ? और यदि किसी के घर में उसके मायकेवाले आये हैं तो फिर तो कुटरियों की संख्या एक से अधिक व काफी भी हो सकती है ? बहनें और बेटियां उन्हें अंदर सँभालने के साथ –साथ उलाहना भी दे रही हैं , “ इन सब की क्या जरुरत थी भुली या क्यों लाई माँ इतना बोझ बोक के ” ?
दस –ग्यारह बज गए हैं तो बाजार में अब भीड़ जमनी शुरू हो गई है. “ आओ दिदी ,बैठो चाय पियो ” होटलवाले हाथ से ईशारा करके बुला रहे हैं. कहीं भट्टी पर गरम पकोड़ियाँ तली जा रही हैं तो कहीं गरम-गरम जलेबियाँ चासनी में डुबाई जा रही हैं . आज दुकानें भी अपनी सामान्य सीमा रेखा को लांघकर कर काफी बाहर तक आ गई हैं, मिठाइयाँ शोकेस की कैद से मुक्ति पाकर खुली ट्रे में साँस ले रही हैं . आज दुकानदारों से दुकान अकेले नहीं संभाली जा रही है, एक –दो मददगार बुलाने पड़े हैं . चाय के साथ पकोड़ी, समोसे,बर्फी और गरमा गरम जलेबी आज क्षुधापुर्ती का सबसे बड़ा साधन बने हुए हैं .
कई दुकानदारों ने गढ़वाली कैसेटें लगाकर बाजार की फिजाओं में संगीत घोल दिया है , “ ए ऊँचा निसा डाँडो म ,टेढ़ा मेढ़ा बाटों म ,सर भई मोटर चली ”और फिर हॉर्न की एक तेज, मधुर गूँज ? कहीं चरखी में बैठनेवाला गीत है ?
गुब्बारेवाले ने बाजे में हवा भरकर छोड़ दी है , प्वां ----.देखो ठीक है ? तो कोई बासुरी बजाकर दिखा रहा है तो कहीं छोटे डमरू की डम,डम है तो कहीं कागज के भोंपू की जोर की ,पों है ? लाल ,हरे ,नीले ,पीले प्लास्टिक के रंग-बिरंगे चश्मों के रंगीन कागज धूप में चमक रहे हैं और ये बच्चों की पहली पसंद हैं. बड़े बड़े गुब्बारे अपनी घुमावदार पूंछ से डंडे से बंधे , हवा में ईधर –उधर थिरक रहे हैं . दूकानदार कह रहे हैं ,आराम से देखो, पसंद करो, परखो और ले जाओ न किसी गारंटी की जरूरत है न वारंटी की ? हर दस कदम पर एक गुब्बारे वाला खड़ा है .लाला अवध बिहारी की दुकान से लेकर बस अड्डे तक ,जहाँ सड़क पर जगह मिली, कहीं रबर ,प्लास्टिक, टिन के खिलोने पसरे हैं तो कहीं, लेडीज चप्पल तो कहीं सफ़ेद फुलगोभियाँ तो कहीं प्लास्टिक की चप्पलें-कंडियाँ तो कहीं चूड़ी ,रुमाल ,बिंदियाँ ,गिलट की पायजेब और और कांच के बक्सों में बंद तरह –तरह की अंगूठियाँ,लाल ,हरे ,नीले रंगों वाली ? पूरे बाजार में आज यही सब कुछ है और दिनों से जरा कुछ हटके, सस्ता और कामचलाऊ ? इनके अलावा कोई नारंगी रंग की कुल्फीवाला है ,तो वजन करने की मशीन है ,हींग –फरण-चोरुवाले तिब्बती हैं ,हाथ पर नीली स्याही से नाम लिखनेवाले हैं . सबसे अधिक भीड़ चूड़ीवालों की दुकान पर है, भाई ,जीजा व पति चूड़ी लेने का आग्रह कर रहे हैं . किसी कोमल कलाई पर लाल कांच की चूड़ी पहनाने के प्रयास में कुछ लाल रक्त बिंदु छलक उठे हैं ,मनिहार के द्वारा हाथ ढीला छोड़ने का बार –बार आग्रह . किसी रंगीन चश्मे के लिए किसी बच्चे की रुआ –रो या सड़क पर लमलेट हो जाना या माँ के समझाने पर दोनों पैरों को जमीन पर जोर –जोर से रगड़कर मचलना और अंत में जिद पूरी होने पर चेहरे पर परम संतोष के भाव व नाजुक हथेलियों से आंसू पोंछना . दिन सर पर चढ़ आया है ,बाजार में तिल रखने की भी जगह नहीं,होटल भी भरे हैं ,सड़क पर मोलभाव जारी है . शहरी लड़कों का कोई झुंड किसीको जान-बूझकर ढसांक मारकर आगे बढ़ गया है या किसी के कान के पास जोर से कागज का भोंपू बजाकर गुजर रहा है या फिर दस –बारह लड़कों के झुण्ड का समवेत स्वर में भोंपू वादन करते हुए आगे बढ़ जाना .
कुछ लोग किसी दुकान के छज्जे या छत पर बैठकर मेले का आनंद ले रहे हैं . कुछ ग्राउंड जीरो में धक्के खाते हुए बाजार से गुजर रहे हैं . धीरे –धीरे सूर्य अब अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा है ,लोगों को घर जाने की चिंता सताने लगी है. संगी –साथियों से जल्दी करने का आग्रह है ताकि रात होने से पहले घर पहुँच जाएँ . किसी ने कहा थोड़ा एक डब्बा मिठाई लेना था यार तो किसीको गोभी का फूल लेकर जाना है . हौले –हौले भीड़ छटने लगी है . बस अड्डे पर बसें फुल हैं ,पैर रखने की जगह नहीं ,कुछ लोग बसों की छत पर चढ़ गए हैं .ड्राइवर बस भरने के बावजूद भी चलने का नाम नहीं ले रहे हैं उल्टा हार्न पर हार्न बजाये जा रहे हैं ,यात्री परेशान की अब कहाँ बिठाएगा ? कंडक्टर कह रहा है थोडा और पीछे खिसको.
बाजार अब सूना होने लगा है ,रौनक ख़त्म होने लगी है, लोग लौट चले हैं .
तो ठीक है भईया जाओ ,राजीखुशी से जाओ, अगले साल फिर आना , तुम्हारा इन्तजार रहेगा ?

पुराणी टीरीवालों का – टीरी बजार
( गतांक से आगे )
यार, भले ही हम दुनियां की निगाह में कुँए के मेंढक और कूप मंडूक थे पर हमारा अपना कुआँ तो था ? अब जैसा भी रहा हो, एक छोटा सा कसबा, एक पिछड़ा हुआ जिला , हम उत्तर प्रदेश के पिछलग्गू, भारत के नक्शे पर एक छोटा सा भूभाग, देश की सीमा के करीब और सबसे अधिक सैनिक और क़ुरबानी देनेवाला हमारा आज का उत्तराखंड . पहाड़ियों के विकास में खाली उनका अपना ही हाथ रहा है, न किसी की हदद न मदद, अपने बलबूते पर खड़े और अपने ही दम पे आगे बढे,हाँ हमारे देवताओं और पितरों का आशीर्वाद जरूर साथ रहा होगा और इसमें किसी को कोई संदेह भी नहीं हैं .)
पर भुला ,हम टिहरीवालों की अकड़/ तड़ी तब भी यनि थै कि, “ हम चौड़ा अर बजार सांगडु ( संकरा ) ” ? क्या पता सोच भी यन्नी रै होलि ? हम हैक्का कै तैं ,कुछ नि समझदा था ,न मानदा था ? क्या पता या हमारी कमजोरी भी रै हो, जे वजह से हम जादा प्रगति नि करी सक्याँ ? नितर एक हैक्का का सहारा काफी प्रगति कर सकदा था ? क्या नि थौ हम म, माधो सिंह भंडारी थौ, कफ्फू चौहान थौ विक्टोरिया क्रॉस गबर सिंह, श्रीदेव सुमन, एक बडु पर्यावरणविद यख तक कि, राजा-राणी भी था ? बाद म गढ़ –नरेश भी टीरी कु राजा ही रैगि थौ बळ अर अर भगवान बदरी- विशाल का बद्रीनाथ मंदिर का पट खोलण कु मुहूर्त आज भी नरेंदर –नगर का महल म, मेदनीधर पंचाग वालों का वंशजों की काल -गणना का अनुसार ही निर्धारित करे जांदू, भगवान का दिवा पर गाडू –घड़ा कु तेल चढ़ोण कु अख्त्यार रज्जा का बिना तख़्त –ताज का वंशजु म आज भी छ. कै जमाना म उत्तरकाशी भी हमुम ही थौ ? टीरी की परसिद्ध सिंगोरी , जै सणी देसी लोग पत्तावाली मिठई बोल्दा छन अर टीरी की दूर –दूर ता परसिद्ध नथुली भी हमारी थै ? क्या पता यांकी ही अकड़/ टेंड रै होली हम पर ?
तुम फंडू बोलि करा हम संणी टिर्याल पर गढ़वाल म विनर नी त रनर त हम ही था अर आज भी छां ? येई सणी त हमारा टैम पर स्थानीय मुहावरा म बोलेगी “ फुल्ल तड़ी, हाफ टेस ”. हमारा पड्यार गांव का कुछ छोटा माफीदार बोल्दा था कि ,“ जीरा बासमती कु भात अर आलमपत्ति कु साग या भुज्जी खाई बल आज ” ? यु अपणी, विपन्नता तैं अपणा ओहदा ( माफीदार ) की संपन्नता का निस छिपौण कु निरर्थक प्रयास थौ . टेहरी का निकट बस एक ही गांव थौ माफ़ीदारु कु पर ऊंका किस्सा अनेक था. यन्नी गोदी –सिराई का रतूड़ी लोग ? रायबहादुर साब, डिविजन साब अर डिप्टी साबू का किस्सा सुणिन हमन पर कैका हाथ से कैकु भलु केक होंण थौ ? न कैन ऊंकी खुशामद करी और न ऊंन कै मुख लगाईं ? हाँ बिर्गेडियर जुयाल न जरुर करी पहाड़ियों की मदद, जबरी वु मेरठ सलेक्सन बोर्ड का चेयरमैंन था. पित्रशरण रतूड़ी त पैली रियासत का आंदोलनकारी रैन अर बाद म एस.एस. बी का बजारमहानिदेशक भी रैन ? पुराणा लोग बोल्दा भी था कि. गोदी का रतुडयों न कैकु भलु नि करी ?खैर छोड़ा कख लगाणी यी छुईं ? फिर घुमी फिरिक टीरी बजार की बात करदां अर वु भी हिंदी म.
गीता भवन की गली के अंदर, गली जहाँ ख़तम होती थी,उसके ठीक सामने गीता भवन था, नाम भले ही इसका भवन रहा हो लेकिन यह दरसल में एक मंदिर था, पंजाबी समुदाय की भक्ति और उनके के सांस्कृतिक – आयोजनों का केंद्र, वैसे वो हनुमान मंदिर और शिवमंदिर में भी जाते थे और गुरुद्वारा भी. गुरूद्वारे को हम लोग वैसे सरदारों से जोड़कर देखते हैं और दरसल में सिक्खी या सिक्ख पंथ की स्थापना हिंदू धर्म की रक्षा के लिए ही हुई थी और इनकी अलग पहचान के लिए उन्हें शरीर पर धारण करने के लिए पांच विशेष प्रतीक या चिह्न दिए गए. केस और दाढ़ी साधुओं जैसी, काटने की मनाई, पगड़ी पहनने का दस्तूर और साथ में कंघा, कच्छा और कृपाण भी दे दिए गए. जो कौम में और भी लड़ाकू थे वो निहंग बन गए ? सारे मर्द सिंह साहेबान कहलाते हैं गए और औरतें कौर कहलाई, “ वाहे गुरु दी किरपा, वाहे गुरु दी मेहर ” ?
और मेहर सिंह से याद आया सरदार मेहर सिंह और करतार सिंह लेकिन उनसे पहले था भवानी भाई ? पहले उसके पिताजी का वहां पर होटल था, लोग रोटी –भुज्जी खाते थे, शायद जीवानंदजी बमण गांव के सरोला थे, रसोईया? भुज्जी भी सादी ,ऐसा नहीं कि मटर –पनीर या मशरूम हाँ आलू –गोभी या आलू –मटर, हरी भुज्जी, स्यूंचणा, कद्दू की भुज्जी चलती थी ? दूकान के ऊपर उसका घर था, बरामदे में पर्दे के लिए सिरकियां लगी रहती थी और खुला बरामदा बंद भी हो जाता था,अंदरवाले बाहर देख सकते थे पर बाहरवाले अंदर न देख सकें. और ऐसे ही बंद बरामदों के पीछे बैठकर लोग मकर संक्रांति या वसंत पंचमी का नजारा देखते थे ? बाद में भवानी भाई ने वहां पक्का भवन बनाया एक दुकान अपने लिए, बगल में बैंक, ऊपर ममता फोटो स्टूडियो और एक आध टेलर ? शायद जस्सी की जूतों की दुकान, राधू का बैंड और टेहरी गोलीकांड में शहीद श्रवण नाई भी वहीँ कहीं थे ? व्यवहारकुशल सब्जीवाला बालकिशन, श्याम का भाई, भी वहीँ था ?
राधू के पिता, गोविन्द चचा का बैंड शहर का एकमात्र अधिकृत बैंड था ? शहर में उस ज़माने में ढोल भी भी नहीं होते थे खा ली एक –दो नगारे वाले, संगरांद –मासांत बजाने वाले ? चचा का पूरा नाम गोविंद सिंह चंदेल था और वे प्रांतीय रक्षा दल ( पी.आर.डी या होम गार्ड ) के सदस्य थे और कई बार इसकी जर्सी और लाल बूट पहनकर अपने गोविन्द / गोविंदु बैंड का संचालन करते थे व अपने साजिंदे या कारिंदों को , लेफ्ट –राईट, लेफ्ट –राईट,थम का अभ्यास भी कराते थे ? उनके पास राम ढोल भी था और मश्की बाजे की अलावा एक तो छोटे ढोल भी थे, एक ट र र र टर्र टन –टन की तेज आवाज वाला और दूसरा ढम , ढम की आवाज वाला ढोल, साथ ही छम-छम की आवाज वाला, पीतल की छोटी थाली जैसा भी होता था . चचा कभी –कभी मश्की बाजे के नीचे का हिस्सा निकाल कर उसे बीन का रूप दे देते ताकि वे बैंड –मास्टर जैसे दिखें और घ्यालू के पिता मश्की बाजा बजाते थे. इसे अंग्रेजी में पाईप-बैंड भी कहा जाता है और दो –तीन पाईपों के साथ एक थैला जैसा रहता है जिसे काख के नीचे दबाना पड़ता है और इस से ही हवा भरी जाती है ? स्कॉटलैंड वाले भी तो यही बजाते हैं और यदि कभी आप दस –पांच पाईप- बैंड को एक साथ बजता हुआ सुनलें तो उनकी मधुर धुनों को कभी भूल नहीं पाएंगे ? चचा रामलीला में मेघनाथ का पार्ट भी खेलते थे और बाद में राधू ने भी यह भूमिका निभाई थी.
सरदार मेहर सिंह और उनके भाई तो सरदार थे पर पिता मोना थे . उन लोगों की हार्डवेयर की दूकान थी, उनके पास एक जर्सी गाय भी थी . आगे बिल्लू और शंकर के पिता का होटल था जैसे कि, जिवानंदजी का था पर इनके यहाँ मच्छी भी मिलती थी और उनको पकड़ने के लिए अलग से आदमी थे. ये हिमांचल के पश्चिमी थे जो संक्षिप्त में पछमी कहलाते थे .इसी होटल में श्यामू भाई की पान की दुकान भी थी . श्यामू भाई को कृष्णलीला में अर्जुन की भूमिका को निभाने में महारत हासिल थी . वे रामलीला व कृष्णलीला के आयोजनों से प्रभावशाली रूप से वर्षों तक जुड़े रहे, चंदा लेने से लेकर मंचन तक ? बाद में श्यामू भाई काफी सक्रिय रूप से, बाँध विरोधी आन्दोलन से जुड़ गए थे व प्रभात फेरी में छोटे लाउडस्पीकर से नारे लगाने का दायित्व बहुगुणाजी के अलावा उनका ही होता था ?
सरदार मेहर सिंह और बिल्लू लोगों के मकान मालिक हमारे मोहल्ले के सेठ खेमराज बहुगुणा थे.
फिर महादेव बडोनी के पिता श्री थेपड़राम बडोनी जी की संपत्ति थी ,उनकी आटा चक्की भी थी और बाद में उन्होंने पक्की दुकानें बनवा दी थी, जिसमे नीचे जयचंद ( चद्रसेंन जी का पुत्र ) की परचून की दुकान, मिटटी तेल की दूकान और ऊपर एक –दो दर्जी की दुकानें थी ,जिनमे एक शकूर भाई की भी थी . फिर चचा हीरालाल एंड संस का जनरल स्टोर था . उनका लड़का विजय हमारे साथ पढता था और उसके दो भाई सोक्की ( अशोक ) और गोगी थे . फिर चक्कीवाली गली थी ,जिससे एक तप्पड होकर पछमी मोहल्ला या --–ग्याणा होकर घंटाघर जाने का सीढ़ी चढ़कर जानेवाला रास्ता था ?

गीता भवन की गली रही हो या भिम्मू –दत्तु मुल्तानी भाईयों की गली या साबिर भाई की बांबे –वाच की बगल से लाला मूलचंद और जुग्गी चिचा के घर को जानेवाली गली ? बल्कि मै तो ये कहता हूँ कि इसमें आप चचा हीरालाल या मनोहर लाल- भगतरामजी की दुकान की बगल से होकर जानेवाली सड़क और उसके भी आगे पकोडिवाली गली को भी साथ में ले लो और फिर याद करो काफी पुराने समय को सन सत्तर के आसपास को, जब इन अलग –अलग गलियों से कभी दिन में और अक्सर शाम को चलनेवाले कई मुसाफिरों की मंजिल और मुकाम, एक ही होता था ? ला पिला दे साक़िया ,पैमाना ,पैमाने के बाद , बात मतलब की करूँगा, होश में आने के बाद = देसी दारु का ठेक्का . ऐसा बरकतवाला धंदा कि ग्राहक बंद दुकान के आगे प्रतीक्षा में खड़े, खुलते ही रौनक और शाम को तो ऐसी भीड़ कि बस कुछ न पूछो ? कोई इधर से हाथ घुसा रहा है तो दूसरा उधर से आगे बढ़ा रहा है ? न किसी वास्तुशास्त्र की गरज न कहीं ये बोर्ड लगाने की जरुरत कि, इंसानों का पेट्रोल पंप है , दस मीटर या बीस गज आगे है या वहां जाने के लिए कृपया बाएं मुड़े, क्यों दोस्तों ? खाली किसी से बस धीरे से पूछलो कि भाईजी हमारे परिवार की बदनसीबी कहाँ मिलेगी ?
ठगिनी क्यों नैना झमकावे, सबको जल्दी है और कोई वहां जादा देर रुकना भी नहीं चाहता, बस लो और चलते बनो और फिर कहीं चल के बैठो इतमिनान से ,आराम से ? बाद में ये दुकान उस गली कूचे से निकलकर , पुल के ठीक ऊपर और पुलपार स्थानांतरित करदी गई , अब हवाघर में खड़े या उसके आगे जानेवाले लोग आराम से अंदाज लगा सकते थे कि, कौन तीन धारे से आ रहा है और कौन पुलिस चौकी के ऊपर से और फिर यह ठेका यहाँ से भी विस्थापित होकर तीन धारे से भी आगे, चढ़ाई से भी आगे चला गया. ठेका शहर से तड़ीपार होने के कारण ,इससे कई लोगों को, एक अलग किसम का साईड-जॉब मिल गया, उन लोगों ने दारू के कूरियर का काम शुरु कर दिया, प्रति नग 10 रुपे मात्र और फिर यह ठेका घूमफिरकर पता नहीं किसकी सिफारिश पर बस स्टैंड में आ गया ?
इसके अलावा हमारे शहर में और भी कई किसम के पेय आते जाते रहे . एक बार संजीवनी –सुरा का दौर चला और फिर आया टिंचरी का प्रकोप. यह बहुत जल्दी सबकी जुबान पर चढ़ गई और काफी लोकप्रिय भी हुई लेकिन इसका भाई जिंझर जादा प्रसिद्धि हासिल न कर सका ? टिंचरी के प्रमुख अवैध विक्रेता थे , श्रीनगरी जोशी बंधू और सहारनपुर का मित्तल, किसी मॉडल जैसा, फ्रेंचकट दाढ़ी और साथ में एलशेसियन कुत्ता. जोशी बंधुओं ने अपना ठिकाना ,घंटाघर जानेवाली रोड पर ,प्रताप कालेज के साइंस ब्लॉक के ठीक नीचे बनाया तो मित्तल ने बस अड्डे में दाईयों के रहने की धरमशाला के पास, एक लकड़ी के खोके में . मजेदार बात ये थी कि, कांच की होने के बावजूद भी यह बोतल न कहलाकर,टिंचरी का पौंड कहलाती थी. इंग्लैंड के पाउंड, शिलिंग और पेंस तो खाली हमने पढ़े ही थे पर टिंचरी के पौंड सचमुच में देखे भी थे और कम पैसे वाले टिंचरी को औंस में भी खरीद सकते थे ?
इस टिंचरी ने शहर में बहुत लोगों को बरबाद किया, पीनेवालों को भी और इसे बेचनेवालों को भी, सुना एक बंदा इसे बेचकर काफी अमीर हुआ, एक बड़े व्यापारी ने भी इसके धंदे में हाथ अजमाया था लेकिन बेचारे छोटेमोटे कारोबारी तो लुटते रहे, पिटते रहे और बंद भी होते रहे, हम भी कई बार देखते थे पुलिस या एक्साईजवालों का छापा और बाजार में अच्छा तमाशा हो जाता था. झूठ क्यों कहना, चखी तो भुला हमने भी थी ? और कुछ दोस्त बिना किसी बीमारी के भी बट्टीयां खाते रहते थे, लड़खड़ाते थे और छोकरे उनसे मजाक करते, “ तू ने दारु पी रक्खी है बे क्या ? ना यार /भाईजी . अबे झूठ मत बोल ? ना माँ कसम, अच्छा लो मुंह सूंघो ” ? अपनी निर्दोषता सिद्ध करने का कितना बढ़िया तर्क था --- गिच्चा सूंघो ? लोगों ने इनका नाम “ फिकर नाट की गोली ” रख दिया था तो कई इसको “बिट” भी कहते थे ?
मुलतानी की दूकान के सामने, सड़क के उस पार सुद्धी भाई की सब्जी की दुकान थी. मजाकिया स्वभाव का गोरा –चिट्टा, बड़ी –बड़ी मूछ और अच्छा आदमी, ऊपर से स्थानीय व्यक्ति और सबसे जान पहचान. तो उसकी दूकान शुरू में काफी अच्छी चली . टैक्सियों में चलने लगा .दुकान में दो –तीन काम करनेवाले और फिर जब समृद्धि सर चढ़के बोलने लगी तो फिर भाई को पीने की ऐसी लत लगी कि, सब कुछ लुट गया. उसके पास काम करनेवाले दूकान मालिक बन गए और सुद्धी भाई, बाद में चाय बेचने पर मजबूर हुआ. सुद्धी भाई को तैरना नहीं आता था, रामलीला में राजा भी बना और एक बार हमारे साथ एक शादी में दिल्ली गया और ग्लाईडर में बैठा तो फिर कई महीने तक ये बोलता रहा , “ हम आसमान में उडनेवाले ,जमीन में चलनेवालों से बात नी करते ”, बेटा ? अबे ओ बुड्ढ़े की औलाद, वो मेरे एक दोस्त को अक्सर चिढाता, सीता स्वयंबर में कहता, अबे -------- भुला तू क्यूँ आया यहाँ , जा घर और वो चिढकर कहता , छोड़ न यार सुद्धी भाई , यहाँ मै राजा, बना हुआ हूँ ” ?
सुद्धी भाई की बगल में रमोलाजी थे. चाय की पुरानी दूकान, दो भाई , जैसे सिद्वा –बिदवा, चंबा की तरफ के ,कभी –कभी काणाताल –सुरकंडा के आलू का धंधा भी करते ? उनकी दुकान के आगे भी ताश, सीप खेली जाती और उनकी दुकान में लड़के माचिस खेलते, कांच के गिलास में माचिस गिरी तो 25 पॉइंट ,यदि टेबल पर खड़ी हो गई तो इतने नंबर और आड़ी गिरी तो इतने और जो हारेगा वो चाय पिलाएगा, दो की तीन और खुद भी पिएगा. सुद्धी भाई के ऊपर एक टेलर भी था ,वही जो पहले अलबेला की दुकान के ऊपर था. रमोलाजी की बगल में गज्जू की दुकान थी, अच्छी खासी, गज्जू पहले एस.एस.बी में था , अच्छी बॉडी, फुटबाल का खिलाडी. वो राजू भाई का छोटा भाई था ,कालेज में वह हमारा जूनियर था, डिस्ट्रिक –रेली में कवि दरबार में भाग लेता था ,उसकी आवाज अच्छी थी, बाद में पता नहीं क्या हुआ ? राजू भाई भी अपने ज़माने में फ़ुटबाल के अच्छे खिलाडी थे ,गोल –पोस्ट सँभालते थे और अभी तेहरी में सरकार की तरफ से कानून की पैरवी करते हैं उनसे बड़े शशि भाई को भी मै जानता हूँ, दुकान के ऊपर ही रहते थे और फल उद्यान विभाग में थे . अभी मै उनको सलीम भाई की दुकान या बाटावाली दुकान में बैठे देख रहा हूँ ,सर पर ज्वेलथीफ कट कैप . और उनके पिताजी को भी शायद मैंने देखा था. सफ़ेद पायजामा ,ऊपर नीली कमीज और चाकलेटी कलर की वास्केट और लाल फ्रेम का चश्मा, पता नहीं कितना सच और कितना झूठ ? उनकी दुकान के आगे शायद गोकुल दर्जी भी बैठता था और बात -बात पे पुलिस में जाने की धमकी देता था फिर नत्थी भाई की घडी की दुकान थी ,इल्ली भाई भी उसमें बैठता था और दोनों भाई ठेकेदारी भी करते थे .
उनके बाद सलीम भाई का सलीम बूट हाउस था. सलीम भाई तेज –तेज बोलनेवाला तेज तर्रार आदमी था . एक बार उसने पूछा , “ यार भुला बम्बई में रहता है पर जूते यहाँ से ले जाता है ,क्या बात ”? मैंने कहा भाई, वुडलैंड के जिस जूते पर मानो 499 लिखा है तो वो 500 का नोट देने पर,कम करना तो छोड़ो, साले एक रूपया भी वापस नहीं करते और सलीम भाई तुम 450 ही लेते हो, फिर मै क्या करूँ और यह सुनकर सलीम भाई बहुत खुश हुआ. सलीम भाई कट्टर बाँध विरोधी था . एक बार जूता लेने के बाद एक इंजीनियर ने मजाक में कह दिया, यार टेहरीवालों के तो ठाट या मजे हो गए डाम बनने से ? यह सुनकर सलीम भाई के तन –बदन में जो आग लगी तो कुछ मत पूछो ? वो तो एक –दो ने बचा दिया , नहीं तो सलीम भाई ने तो जड़ दिया था उसके ? उसने कहा कि, मुझे नहीं बेचना आपको जूता और उसके हाथ से डब्बा वापस छीन लिया और पैसे वापस लौटा दिए.
सलीम भाई के बाद मोहन की बेकरी थी,पहले पता नहीं वहां क्या था, मोहन बड़ा स्वीट लगता था . मोहन के बाद चौधरी साहब की चने ,मूंगफली, खील, मुरमुरे ,चिवड़े आदि की दूकान थी. उनकी पत्नी को हम ताई कहते थे . पान खाते चौधरी साहब, पगड़ी पहनकर कुछ इस अंदाज में दुकान पर बैठते जैसे सचमुच किसी गांव के चौधरी वाकई में हों ? उनके ऊपर भूषण भाई का फोटो स्टूडियो और टेलर मास्टर ईमाम बेग की दुकान थी और इसके बाजू से ही संगम रोड जाती थी .

टीरी बजार की सैर करते हुए हम पिछली बार इस तरफ चने –मूंगफली की चौधरी साब की दुकान और संगम रोड की शुरुआत तक पहुँच गए थे तो दूसरी तरफ चक्कीवाली गली के बाहर खड़े थे . चलो फिर संगम रोड से बात शुरू करते हैं ? तो जैसा इसके नाम से ही आभास होता है ,यह आजाद मैदान और गर्ल्स स्कूल के बीच से गुजर कर गंगा –भिलंगना के संगम तट की ओर जाती थी. “ तेरे मन की गंगा और मेरे मन की भिलंगना का, बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं ” ? अब हुआ या ना हुआ, ये तो राधा के पीछे पड़नेवाले कृष्ण –कन्हाई ही जाने पर इस सड़क के इसी नुक्कड़ पर कभी गोवर्धन भाई ने एक संगम –होटल खोला था जो हमारे बड़े –भाइयों चाँद, जन्नीं भाई, मदन ड्योंडी, जबर सिंग ,यशवंत मल्ल , सूरी पांडे, कम्मू मामू आदि का अड्डा हुआ करता था. बाद में इसमें अमीचंद की चाउमीन-मोमो की दुकान भी रही और इसकी बगल में एक बार पुन्ना कुकरेती ने सब्जी की दुकान भी खोली थी और बाद में यहाँ लाखी उर्फ़ घ्यालू भाई अख़बार व किताब बेचा करता था. वहीं पर ख़ासपट्टी के लामा लोगों का एक होटल भी था और उसके सामने पान की दुकान थी . आगे ज्ञानी –अमीचंद की झटका व मकबूल की हलाल के मटन की दुकान थी. मुन्ना धुना के पिता मुल्लाजी की रुई धुनने की दुकान थी, हरी भाई व देबू के पिता की लकड़ी के सामान की दुकान थी और शहर के सारे धोबियों की दुकानें भी यहीं थी और एक बेकरी भी थी, जिसके मालिक रामप्रसाद थपलियाल थे और मुस्सू मियां की राशन की दुकान भी थी जो पहले बाजार में शाहिद वगेरा की राशन की दुकान के पास में थी .
तो बाजार की तरफ रैठु बुढाजी की मिठाई की दुकान थी, जहां उनके स्टाफ या दूधियों के अलावा पब्लिक के लिए चाय नहीं बनती थी. वो कांग्रेसी नेता व वकील ज्योति भट्ट के पिता और भटकंडा के निवासी थे . बाद में यहाँ लाला भगतरामजी ने, जिनका आंचल स्वीट शॉप भी था, मिठाई की दुकान व होटल खोला था और जिसे प्रदीप का छोटा भाई चलाता था . फिर नजीमाबादियों के मुखिया, गुलाम मौला की सब्जी की दुकान थी, जहाँ एक बारा-मसाले वाला नाम का शख्स भी था जो सर पर टोकरा उठाके कभी तरबूज बेचता और कभी अमरुद और आवाज लगाता था , “ बारा-मसाले वाला ” ? इसी में ही शायद कभी पुराने दरबार के देबू पंडितजी के पिता की चाय और मिठाई की दुकान थी, दूकान में उनके पिता बैठा करते थे और बाद में उन्होंने चनाखेत में भी चाय का होटल खोला था फिर एक टेलर मास्टर सरदारजी की दुकान थी जो बाद में फ्रिज – टी.वी. के शोरूम में तब्दील हो गई. उनसे आगे आगे नाईयों के सरताज, लक्खू नाई की दुकान थी, जिनका चक्कीवाली गली के आगे एक पक्का बड़ा दुमंजिला भवन था ,जिसमे नीचे के भाग में रेलवे –आउट एजेंसी थी. लक्खू नाई की दुकान के आगे हम अक्सर चौपड़ की बिसात बिछी देखते थे . खिलाडी लोग हाथ घुमाकर बड़े दूर की कौड़ी फेंकते हुए नजर आते थे . फिर पछमी बंधुओं श्यामू भाई, अर्जुन- भिम्मु के पिता और हरी भाई के पिता थेपड़रामजी आदि की परचून की दुकानें थी. अर्जुन के पिता विद्यामंदिर में अध्यापक थे तो श्यामू भाई को लोग प्यार से श्यामू –पहलवान कहते थे पर वे दंगलवाले नहीं बल्कि खाली एक्सरसाइज़ करनेवाले पहलवान थे. हरी के भाई पुर्णु भाई अपने पिता की परचून की दुकान की बगल में हरी भुज्जी, पहाड़ी दाल ( तोर,गहथ, उरद ) और खटाईवाले लिंबू भी बेचते थे . वे बाँध विरोधी आन्दोलनकारी भी थे और प्रभातफेरी में नियमित रूप से भाग लेते थे .उनके एक भाई गोपाल राणा तो इतने बड़े बाँध –विरोधी थे कि उनके कई किस्से और बयांन अख़बारों में भी छपे थे ?
आगे पुराने दरबार को जानेवाली गलीनुमा सड़क थी तो बाजार में सामने दूसरी ओर चक्कीवाली गली थी. और गली में सबसे पहली चक्की श्री थेपड़राम बड़ोनिजी की थी, लेकिन ये बाद में खुली थी .उससे भी पुरानी, आगे चचा रामशरणवाली चक्की थी और बाद में इसे गुणानंदजी ने भी चलाया था .यहाँ आगे एक छोटा सा मैदाननुमा खुला स्थान था जिसमे एक सिरे से रेलवे –आउट एजेंसी तो फिर गीता भवन जानेवाली सड़क ,उसकी बगल में एक सेवानिवृत्त हवालदारजी का चाय का खोखा था , फिर ड्राईक्लीन की दुकान थी , रतुड़ी लोगों का एक होटल था ,जिसमें बाद में डाक्टर नेगी की क्लीनिक खुली थी और बगल में सुभाष -मोहन डोडी का घर भी था व आगे वाल्मिकियों की बस्ती थी , सर्वश्री नत्थू, गोकुल, धांधू, सुखलाल उनमें कुछ चर्चित नाम थे और बगल में घंटाघर जानेवाली सड़क थी तो उसके कोने में भाई हरिओम ओमी का पक्का दुमंजला घर था , वहीँ टिन के बक्से बनाने का लघु उद्योग भी था , पानी की टंकी थी , फिर महेंदर भाई की परचून की दुकान थी ,थोडा आगे जाके गुसाईंजी का लकड़ी का टाल था , फिर श्रवण भाई के पिता, सरदार धन्नासिंहजी की चक्की, आरा मशीन, धान पीसने की चक्की और साथ ही फर्नीचर बनाने का का काम भी था , वहां से हम बुरादेवाली अँगीठी के लिए लकड़ी का बुरादा लाते थे, उनके यहाँ कटहल के पेड़ भी थे और बगल में घंटाघर की तरफ को जानेवाली पतली पक्की सड़क और दूसरी ओर जंगलात का बड़ा लकड़ी –डिपो था और इस से सटी गली में मित्र सूरतसिंह रावत की मसाला -चक्की, मसालों की दुकान,आटा चक्की और बाजार को छूनेवाले छोर पर पकोड़ीयों की नगर - प्रसिद्ध दुकान थी ,जिसकी वजह से डीपोवाली गली बाद में पकोड़ीवाली गली भी कहलाने लगी थी . इस तरह से ये स्थान बाजार न होकर भी काफी व्यवसायिक गतिविधियों से जुड़ा था. एक ज़माने में शहर की सभी सब्जियों की ठेली –रेडियों को बाजार से हटाकर यहाँ स्थानांतरित कर दिया गया था, जिससे इस ईलाके में काफी रौनक आ गयी थी और यह सब्जी मंडी बन गया था, जिसकी शुरुआत, मनोहरलाल –भगतरामजी की दुकान की बगल से होती थी.
बाजार में चक्कीवाली गली के एक किनारे पर लाला हीरालाल अरोड़ा थे तो चार फुट के फासले पर ,दूसरे किनारे पर कभी प्रसिद्ध महावीर पान भंडार हुआ करता था, जो महंतजी की दुकान जैसा प्रसिद्ध था. ये काफी पहले बंद हो गया था, तो फिर कभी यहाँ चाय की दुकान खुली तो कभी कुछ और कभी कुछ? फिर चक्कीवाले गुणानन्दजी का होटल था जिसमे बाद में हरिओम ओमी भाई ने परचून की दुकान खोली थी. हरिओम भाई गाना बड़ा अच्छा गाते थे और सार्वजनिक –समारोहों में भी गाते थे, रंगीन आदमी थे .फिर शायद एक बिजली के सामन की दुकान और ज्ञाना भाई –स्वर्णलाल दमीर आदि की दुकान थी. स्वर्णलाल मॉडल स्कूल में हमारे साथ पढता था, उसके पिता का चेहरा कस्तूरी भाई जैसा था और जब वो अपनी पठानोंवाली ड्रेस पहन कर सर पर कुल्ला ( पगड़ी जैसा )पहनते थे तो किसी पेशावरी –पठान से कम नहीं लगते थे. उनके ऊपर ही प्रकाश भाई का प्रकाश- रेडीओज था, उसके पास शायद मर्फी के रेडिओ की एजेंसी भी थी, जिसका निसान गाल में ऊँगली लगाये बैठा ,लंबे बाल वाला ,नन्हा बच्चा था. प्रकाश के पिता लाला मैन्गामल थे, लम्बे –चौड़े, गोरे, अंग्रेज जैसे ? उनका एक भाई कुलदीप भी था .बाद में प्रकाश भाई को एक ऐसी लत लगी कि,उनका सब कुछ चला गया. प्रकाश भाई बड़े मजाकिया आदमी और डांस करने में माहिर थे. गोरा रंग, पतली मूछे, स्लिम –फिट लंबा बदन और सर पर हैट लगाकर वो किसी एक्टर से कम नहीं लगते थे. रेडियो इंस्पेक्टर उनकी दुकान में जांच करने आता तो वो दुकान बंद कर देते थे और बोलते आज ईद है ? वो कहता यार तुम्हारा ईद से क्या लेना- देना, और बाकी बाजार तो खुला है ? वो कहते ये हमारा आपसी भाईचारा है, कोई न मनाये या मनाये पर मै मनाता हूँ और अपनी दुकान आज बंद है ? मैंने उन्हें बाद के दिनों में काफी करीब से देखा था और जाना था.
फिर बम्बईया सेठ और उनके भाई मक्खनलालजी की दुकान थी .ये एक पक्का व नया भवन था. जिसके ऊपर शायद शकूर भाई, पछमी टेलर आदि की दुकानें थी. बम्बईया काफी समय तक बम्बई रहकर आया था, इसलिए लोगों ने उसे ये नाम दे दिया और फिर वह बम्बईया हिंदी ही बोलता था “ अपुन बोला यार काहे को खाली –पीली भंकस करने का अपुन को कोई लफड़ा भी नहीं मंगता , मेरे भाई ” ? सुमन चौक में नत्थू सुनार की दुकान में जब हम मिलते और बैठते थे तो फिर भाई सायन –कोलीवाड़ा के दिनों के और कई अन्य संस्मरण सुनाता था. लाला मक्खनलालजी गोरे, मृदुभाषी और भारतीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक और जनसंघ के कार्यकर्त्ता थे. उनकी स्टेशनरी की दुकान थी. फिर एक ज़माने में शहर के सबसे बड़े कपडा व्यापारी लाला उत्तमचंद की दुकान थी, उनके पिता भी दुकान में बैठते थे. लाला मशहूर , व्यवहारकुशल और मृदुभाषी थे . हम भी उनके पुराने ग्राहक थे. फिर मेरे सहपाठी बलदेव लाम्बा के पिता और हमारे मोहल्ले के निकट पक्के तिमंजले भवन में रहनेवाले, लाला हरिरामजी की कपड़े दुकान थी. बलदेव 1970-71 के करीब लखनऊ में एम.बी.बी.एस कर रहा था और फिर वह अचानक गायब हो गया और बाद में साधू बन गया था. उसके बड़े भाई गुलशन राय ने बाद में वहीँ अपनी दुकान के बगल में अपनी रेडीमेड कपड़ों की अलग दुकान भी खोली थी . गुलशन राय अपने ज़माने में फुटबाल मैच में गोलकीपर और बाद में रामलीला में रावण भी हुआ करता था . कालांतर में उनके छोटे भाई केवल ने अपनी दुकान “ मयूर ” के नाम से ऐसी चमकाई कि उसने सबकी छुट्टी करदी ? उनके ऊपर ही लाला प्रमोद अग्रवाल ( आजकल अध्यापक ) भी रहता था . फिर एक बड़े आढती लाला मनोहरलाल –भगतराम एंड संस की आढ़त की दुकान थी . मनोहरलालजी, हमारे मित्र सरदार इक़बाल सिंह के पिता थे. तो भगतराम, प्रदीप के पिता थे और उनके चाचा जगतराम भी दुकान में बैठते थे. यह दुकान अपने सामानों की गुणवत्ता के लिए शहरभर में मशहूर थी . इसके बाद एक चौड़ी सड़क थी जो टाल या वन विभाग के डिपो की तरफ जाती थी ?
इस पार प्रिये तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा ? तो उस पार पुर्णु भाई की दुकान के बाद स्टेट बैंक व पुराना दरबार जानेवाली सड़क थी और उसके दूसरे किनारे पर पुराना डाकखाना / पुराना पोस्ट ऑफिस था, जिसमें ऊपर पोस्ट ऑफिस और तारघर तथा नीचे टेलीफोन एक्सचेंज भी था. यहीं पर एक, थोड़ा ऊँचा और छोटा सा चौक था ,जिसमे खड़े होकर नेता लोग अक्सर भाषण दिया करते थे . इसे जनसभा भी कहते थे ? चौक के नीचे अहसान के बाप की फिक्स –रेट ,“ हर माल साढ़े पांच आना ” वाली बिसातखाने की दूकान थी. अहसान के बाप को लोग साढ़े पांच आनेवाला कहकर ही बुलाते थे और वह भी दिन भर यही आवाज लगाकर ग्राहकों को बुलाता था . ” चौक में ऊपर पोस्ट ऑफिस के नीचे भगवती भाई के पिता की दुकान थी ,उन्हें लोग महेशा डाक्टर कहते थे और वो वैद्यकी करते थे. कालांतर में यहाँ भगवती भाई जोशी ने दिल्ली से आकर एक चाय की दुकान भी खोली थी . इसी चौक में भाई जयेंदर दत्त सकलानी वकील, हाथ से बाँध विरोधी पोस्टर बनाकर दीवार पर चिपकाते रहते थे यहीं चचा कस्तूरीलाल अरोड़ा व लाला अमरनाथ की दुकान भी थी . लाला अमरनाथ को शिकार का शौक भी था. तो वहीँ आगे चुन्नीलाल, धनराज के पिता की भी कपडे की दुकान थी. उसके बाद छोटे कस्तूरी और राज के पिता की चाय - पकोड़ी व बाद में अंडा –मुर्गी की दुकान थी , उसके बाद लाला सूरज प्रकाशजी की राशन की दुकान थी, लालाजी के लड़के विनोद, राकेश, दिनेश आदि थे व उनका एक छोटा भाई भी था. अंत में यहीं ,भाई कस्तूरीलाल दमीर का दमीर क्लाथ हाउस था . वे लाला ज्ञानचंद और स्वर्णलाल दमीर के भाई थे.उन्होंने कपड़ों के प्रमुख व्यापारी और अपने साढूभाई लाला उत्तमचंद के, इस व्यापार में एकाधिकार को तोड़ा था और उनका कीर्तिमान फिर केवल लांबा के ,मयूर क्लाथ हाउस ने भंग किया था, सूट-सलवार, चुन्नी के लिए वहां हमेशा लड़कियों की भीड़ लगी रहती थी. नए और लेटेस्ट डिजायन उसकी दुकान की खासियत थे ?
फिर उसके आगे, थोड़ा पीछे हटके गुलशन आनंद के मामा श्रीरामजी के पिता की कपडे की दुकान थी कँवल उनका छोटा भाई था. दोनों भाई कलाकार भी थे .श्रीराम भाई समाजसेवा, साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों व राजनीति में भी रूचि रखते थे.फिर भाई गुलशन आनंद के पिता श्री बाबूरामजी की कपड़ों की दुकान थी . सुरेन्द्र और अशोक आनंद, गुलशन आनंद के छोटे भाई थे और बाद में वहीँ अपनी दुकान के पास ही सुरेन्द्र और अशोक ने रेडीमेड कपड़ों की दुकान भी खोली थी .वहीँ एक बूढ़ा मोची भी था. ठेठ पहाड़ी चेहरा-मोहरा, सफ़ेद मूछे-सफ़ेद खिचड़ी बाल काला कोट और सर पर टोपी भी, किसी पोर्ट्रेट के लिए एक फोटोजनिक चेहरा , लेकिन सबसे हैरान करनेवाली बात ये थी कि, वो अच्छी अंग्रेजी बोलते थे ?
फिर पुराना दरबार जानेवाली एक सड़क थी उसके दूसरी ओर भाप्पा चंदरसेनजी की दुकान थी . आँखों में काजल, सोने का दांत और लच्छेदार बातें और सर पर फरवाली टोपी भी . आज, वो कहते उधार ले जाओ , पैसों की कोई चिंता नहीं ,आराम से दे देना और अगली सुबह वसूली के लिए पहुँच जाते थे और डांस भी बड़ा मजेदार करते थे ? उनकी बगल में अविनाश मनचंदा, हरिओम रेखी और मोहन आदि की झोले, सामान्य कपड़े की दुकाने थी और उनके पीछे ही उनके घर भी थे . फिर एक गली थी ,जो सरदार इकबाल और सरदार हरबंश सिंह के घर की तरफ जाती थी . इसके दूसरे छोर पर एक जूते की दुकान थी, वो शायद हरिओम ओमी के चाचा थे और बाद में उनकी पत्नी वह दुकान चलाती थी और उसके बाद डाक्टर सागरजी की दुकान थी, वो शहर के एकमात्र पंजाबी डाक्टर थे, उनका बड़ा लड़का हर्षु मामू, पंकज, अनिल के साथ पढता था और हमारे साथ घूमता था और उसे हम बाली कहते थे .
उसके बाद हरिओम ओमी और राजकुमार के पिता रघुनाथजी की राशन की दुकान, थी. राजकुमार हमारे साथ बारहवीं में पढ़ा था और उसकी व सुशील डोभाल की अच्छी दोस्ती थी. राजकुमार की कुछ बहने भी मेरे साथ पढ़ी थी .फिर संतराम और सरदार हरबंश आदि की दुकाने थी. हरबंस की परचून की दुकान थी और अंत में प्रेम ( बिराला) के पिता सीतारामजी की दुकान थी . प्रेम बड़ा कलाकार आदमी था ,नक़ल उतारने में माहिर, अपने घरवालों की भी अच्छी नक़ल करके बताता था. फुटबाल खेलने का शौक़ीन था .पता नहीं कितनी शामें, डिग्री कालेज की कैंटीन में उसके गाने और मेज पर तबला वादन के साथ गुजारी थी . स्वर्ण लाल, गुलशन, सत्या आदि उसके अन्य भाई थे .
आज जब विभिन्न आकार –प्रकार की पिचकारियों और रंगों से बाजार अटा पड़ा देखता हूँ तो बचपन के वो दिन याद आते हैं कि, जब दो –चार आने के रंग से ही काम चल जाता था और चार - पांच रुपये की पिचकारी एक बहुत बड़ी बात होती थी . कुछ बड़े लोगों, जैसे कि लाला लोगों के घर में ही पीतल की पिचकारियाँ होती थी और वो बरसों चलती थी. होली के एक- दो दिन पहले ही उनके वाशर चेक किये जा ते थे और फिर उन्हें नरम करने के लिए ,तेल में डुबाकर रख देते थे ? बाकी कई सामान्य लोग तो किसी कांच की बोतल के ढक्कन में कील से 4-5 छेद करके उसे इत्र की तरह रंग छिडकने के लिए इस्तेमाल करते थे . ये जरुरी नहीं था रंग के लिए रंग ही हो ? रंग की जगह स्याही की गोल या चौकोर लाल –नीली टिकिया भी बिंदास चलती थी ,नहीं तो कोई कोई अपने ऑफिस से स्टांप –पैड की भटरंगी स्याही की बोतल टपा / उठा लाते थे और यदि कुछ नहीं है तो फिर हल्दी और कपड़ों वाला नील तो था ही ? ऐसा था वो जमाना ? बल्कि ऐसा लगता था कि, गांवों में बहुत सी जगहों पर तो होली शायद होती भी नहीं थी ,क्या पता रंगों के अभाव में या किसी और कारण से ?
वैसे किस्से –कहानी की किताबों में तो हमने ये भी पढ़ा है कि, टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता था या केशर को पानी में घोलकर केसरिया रंग या फिर कहीं राजा –महाराजाओं के दरबार की होली जिकर होता था कि ,राजाओं के दरबारी एक दूसरे पर अबीर – गुलाल मल रहे हैं , गुलाब की पंखुडियों का बरसाव हो रहा है , गुलाबजल और केवड़े का इत्र छिड़कर होली मनाई जा रही है पर हकीकत में हमने ये भी देखा था कि, किसी सुनसान जगह में एक –दो लड़के टॉर्च के पुराने सेलों को पत्थरों से तोड़ रहे होते थे ,फिर वो उनके अंदर से एक काली ( कार्बन ) सी पतली रॉड निकालकर ,उसे पत्थर से पीस कर उसका चूरा बना रहे हैं और फिर शायद उसको मिट्टी –तेल या किसी अन्य चीज में घोलकर ऐसा गाढ़ा काला रंग बनाया जाएगा कि, उसे छुडाते- छुडाते मुंह की खाल निकल जाएगी ? तो कुछ लोग होली के दिन बिजली के खम्बों पर लगाए जानेवाले सिल्वर –पेंट को दोनों हाथों में मल देते और हाथों को पीठ के पीछे छुपाये रखते और फिर दो –चार मिलकर किसी दोस्त को जबरदस्ती पकड़ते और उसके लाख चीखने –चिल्लाने के बावजूद उसका हुलिया बिगाड़ देते थे . तब कहाँ थी ये जन-चेतना कि , रासायनिक रंगों का प्रयोग न करें या प्राकृतिक रंगों से होली खेलें आदि ? होटलों के नौकर तो बर्तनों ( पतीले और भगोनों की कालिख खुरचकर, जिसे हम अपनी भाषा में मस्सा कहते हैं ,उसका भी बिंदास प्रयोग करते थे बल्कि अख़बार में तो कीचड़ फेकने तक की ख़बरें भी पढने में आती थी ? अब वो अज्ञान का जमाना था या असभ्यता का परिचायक, भगवान ही जाने ?
दूसरी तरफ हमने ये भी देखा था कि, होली के चार –पांच दिन पहले, आँवला / आमलकी एकादशी के दिन हमारे मोहल्ले की कई औरतें एकसाथ आंवले के पेड़ की पूजा करने जाती थी और उस दिन इस पेड़ की पूजा की जाती थी और श्री भगवान को रंग चढ़ाया जाता था और इसी दिन से होली का शुभारंभ माना जाता था ,ये अलग बात है कि, रंग केवल रंगपंचमी को खेला जाता था और ये शायद होलिका –दहन के अगले दिन होती है .पुराने लोगों से सुना था कि, राजाओं के ज़माने में जिस दिन होली का डांडा / डंडा, गाड़ा / घेंटा जाता था उस दिन से ही रंग खेलना / डालना शुरू हो जाता था और दफ्तरों में काम करनेवाले तथा दुकानदार आदि पुराने कपड़े पहनकर ही काम पर या दुकान जाते थे,ताकि किसी ने यदि रंग डाल भी दिया तो कोई बात नहीं -------- बुरा न मानो होली है ?
हमारे बचपन में भी, पहले तीन दिन की होली होती थी. एक दिन सूखी होली , अगले दिन गीली होली और तीसरे दिन छरोळी अर्थात राख की होली या कीचड की होली / कपड़े फाड़ने की होली ताकि अगला बेचारा फटी कमीज या कच्छे- बनियान में घर जाए ? बाद में छरोली बंद हो गई और होली दो दिन की हो गई और अब एक ही दिन की रह गई है क्योंकि अब न तो किसी के पास इतनी फुरसत है और तमाम व्यस्तताओं के चलते वक्त की भी हो गई है ? आज यदि आपकी जेब में माल है तो हर दिन त्यौहार है ,रोज ही मौज करो और फिर डायबिटिक हो जाओ ? पहले लोगों को त्यौहार और शादी –विवाहों का इंतजार रहता था और त्योहारों का मतलब खाना –पीना होता था .छोटे आदमियों को तो बरसों किसी शादी में खाए -पिए की याद रहती थी और वो बड़े चटकारे लेकर उस किस्से को सुनाते भी थे ?
खैर हम तो एक- दो रुप्ये की प्लास्टिक की पिचकारी के लिए जिद करते थे ,डांट खाते थे और कभी –कभी मार भी खाते थे क्योंकि एक दिन के अलावा बाद में इसका कोई काम नहीं होता था और घरवालों की नजरों में ये एक फिजूलखर्ची थी . तब उस ज़माने में एक –एक रुपे का भी हिसाब होता था और आज हजार –पंद्रह सौ की बियर पीने के बाद तो दस –बीस रूपये की टिप देना लाजमी है ? क्या जमाना था तब वो और तो अब तो लाखों में भी बरकत नहीं है ,न नीयत भकुमईयाँरती है और न पेट ? आज तो स्कूल की फीस को छोड़ो , स्कूल –वैन वाला ही पांच सौ –हजार ले लेता है और तब हमारी फीस कुछ आनों में ही हुआ करती थी और यहाँ तक कि ,बड़ी क्लास में भी दो –चार रुपये ही होती थी ? उन दिनों बच्चो की दूध पीने की तुत्ति की तरह की पिचकारी को पाकर हम खुद को धन्य समझते थे ? उन दिनों और आज में कितना फर्क आ गया है ? अब तो कई लोग होली खेलना ही पसंद नहीं करते ,न हो कहीं एलर्जी न हो जाए ?
मुझे याद है कि, टेहरी में सेमल तप्पड में झंडी गाड़ी जाती थी . झंडी मतलब किसी कनेर के पेड़ की पीले फूल वाली टहनी और फिर उसके चारों और लकड़ियाँ जमा की जाती थी और फिर गीली होली से एक दिन पहले होली जलाई जाती थी और इसको “ दाग ” देना भी कहते थे . मुझे ऐसा लग रहा है कि ,शिवमंदिर के महंत, जिनके चेहरे पर थोड़ा दाढ़ी भी है ,उस कनेर के पेड़ को कंधे पर उठाकर चल रहे हैं और बाद में उसे सेमल तप्पड़ में सेमल / घोगे के पेड़ से आगे संस्कृत स्कूल के प्रांगण में रोपित किया जा रहा है, उस पर एक लाल कपड़ा भी बांधा गया है .जिसे “ चीर ” कहते थे और कल या परसों यहीं होली जलेगी ?
सुना तो ये भी था कि ,बहुत पहले देवी प्रसाद घिल्डियाल, वकील होली के नबाब बनते थे और गधे पर उल्टे बिठाकर उनका शहर में जलूस निकाला जाता था और नबाब के गले में जूतों की माला भी पहनाई जाती थी ? अब इस सच की ताकीद करनेवाला शायद ही कोई बचा हो ? कितने खिलंदड होते थे वो लोग ,खुद का मजाक बनवानेवाले और खुद पर हंसनेवाले ? कोई ईगो नहीं ,बस मस्ती और सिर्फ मस्ती और मनोरंजन ? तमाम बुराइयों के बीच ,यह एक सबसे बड़ी अच्छाई थी ? आज डी.जे. का शोर तो है पर उस पर डांस कौन करे ? कुछ बच्चे और युवा ? पर हमारे समय में तो बस हुडदंग मचता था कुछ भंग की तरंग में तो कुछ शराब के नशे में चूर पर लेकिन बिना किसी राग –द्वेष के,,मस्ती और सिर्फ मस्ती और जीवन का आनंद , हंसी- ठिठोली ,मजाक, हास –परिहास और मनोरंजन बाकि आगे कल को किसने देखा, अगले साल कौन रहे ना रहे तो होली है ? “आज न छोडेन्गे रे हम रसिया, खेलेंगे बस होली --------- ”? हमारे चाचा –ताऊ और बाप के ज़माने की होली तो बस वो ही जाने और उनका राज ,रजवाड़ा और रियासत ? अब तो कोई पूछने को भी नहीं बचा और जो दो –चार पुराने आधार –स्तम्भ शेष बचे भी होंगे तो वो पता नहीं कुछ कहने –सुनने की मनस्तिथि में हैं भी या नहीं ,भगवान जाने ?
हमारे समय की होली हो और उसमें कुर्मांचल के लोगों का जिकर न हो तो कहानी फिर अधूरी ही रह जाएगी ? टेहरी में दो प्रकार का कुमाउनी समाज था ,एक तो हमारे पुर्बियाणा मोहल्ले के पुर्बिया लोग --- पन्त,पांडे और जोशी ? इनके नाम के आगे एक अलग ही पहचान ,संबोधन/ शब्द जुड़ गया था और ये वो लोग थे ,जिनकी कम से कम सात –आठ पुश्त इस शहर में खप गई थी और ये लोग अपने चंद पारंपरिक रीति और रिवाजों को छोड़कर बाकी बिलकुल हम जैसे हो गए थे .इनके शरीक हुए बिना हमारी पूजा –पाठ ,मुंडन. ब्याह –शादी, रामलीला –कृष्ण लीला सब अधूरे थे ? लेकिन ये लोग अपनी ही दुनिया में मस्त रहते थे ,बाकि बेचारा आजाद मैदान जाने और वो जानें ?
दूसरे,वे लोग थे जो नौकरी और काम –धंधे की वजह से पिछले कई वर्षों से इस शहर में जमे थे और कुमईयाँ कहलाते थे जैसे कि, तहबिलदार साब शम्भू प्रसाद चौधरी, कैलाश चौधरी, अनिल –भरतू और रमेश के पिता पोस्ट मास्टर साहब , हमारे मोहल्ले के श्यामसुंदर भाई के पिता मासलीवाल साहब , कोर्ट में काम करनेवाले उपाध्यायजी और देवेंदर और ऐसे और भी कई लोग थे ? तो आंवला एकादशी के बाद से होली तक, इनमें से किसी न किसी के घर होली की बैठक जमती थी हारमोनियम की धुन और ढोलकी की थाप पर होली गाई जाती थी, कुमाऊ की खड़ी या बैठी होली और चाय –पानी भी होता था . हम दूर से गाने की आवाज और ढोलकी की थाप सुनकर, इसका अनुभव करते थे ?
होली एक प्रजातांत्रिक त्यौहार है ,जिसे घरों से बाहर निकलकर, समूहों में और सड़कों पर खेला / मनाया जाता है . ये समूह मोहल्ले –पड़ोस के, यार –दोस्तों के और कर्मचरियों और अधिकारियों के होते थे ? इनके अलावा बच्चे –बच्चों के साथ और लडकियाँ एवं महिलाएं अपने सीमित दायरे में खेलती थी. बच्चे तो सुबह हुई नहीं कि, अपनी पिचकारी और रंग तलाशने लगते बाकि बड़े लोग नौ बजे के करीब घर से निकलते थे .सबसे पहले तो पुराने कपड़ों की तलाश होती ताकि फिर उन्हें फेंक भी दिया तो कोई मलाल नहीं ? कई बार माएं डांटती , “ अरे तेरा दिमाग ख़राब है, नई-कोरी शर्ट ख़राब करेगा क्या ? जा उसे पहन ”.बच्चे प्रतिवाद करते , अरे उस हाफपैंट में तो बटन ही नहीं है और वो बहुत टाइट भी है या कमीज की सिलाई उधड़ी है ? तो माँ कहती , ला मै अभी उसे ठीक कर देती हूँ ? बच्चे को बाहर भागने की जल्दी क्योंकि बाकी बच्चे तो खेलने भी लगे हैं ?
बड़ों को पूछा जाता कि, चाय बना दूँ थोड़ा ? पीके जाओगे या निकल रहे हो ? नेगीजी ने अपने रंग की पोटली या प्लास्टिक उठाया और अपने घर से निकलकर रावतजी के घर में घुसे और लगे दरवाजे से ही आवाज देने , अरे रावतजी कहाँ हो महाराज , किधर छुपे बैठे हो, तब तक उनकी मिसेज ने किचन से निकलकर कहा, नमस्कार भाई साब, आइये बैठिये, तब तक अंदर से रावतजी की भी आवाज आ गई, बस एक मिनट भाई साब, आया . फिर दुआ सलाम हुई ,बच्चों को भी रंग लगाया गया और चले असवालजी के यहाँ, दरवाजे से आवाज लगाई और देखा कि, असवालजी कमरे से बाहर तो निकले पर सामान्य ड्रेस –कोड में , ऊपर से स्वेटर भी पहनी है ? क्या बात नेगीजी ने थोडा चिंतित स्वर में पूछा ? क्या बताऊँ भाई साहब, आजकल साला दो –तीन दिन से तबियत कुछ ठीक नहीं है ,कल रात भी माचु बुखार था . ओह, कहकर दोस्तों ने उनके माथे पर तिलक लगाया और विदा ली .थोड़ा आगे पहुंचे तो गली में अपने घरों से निकलते एक –दो लोग और दिख गए तो होली की बधाई के साथ रंगों का आदान हुआ और काफिला आगे की ओर बढ़ा और मोहल्ले के मैदान में पहुंचे तो पांच –सात लोग पहले से मौजूद दिखे . दो दोस्त गले मिल रहे थे कि, पीछे से किसी बच्चे ने पिचकारी की धार मारकर गीला कर दिया . शरीफ और सभ्य लोग कुछ ऐसे इकट्ठे होते थे ? बड़े लोग सूखे रंग अधिक पसंद करते थे और भीगने से बचना चाहते थे .
स्कूल के नौजवान लड़के कुछ ऐसे इकट्ठे होते , “ आंटी नमस्ते, भुवंनवीर घर पर है क्या ? अंकल हैप्पी होली, पप्पू घर पर है ? ऐसे ही प्रभात, रवि ,भवानी, अमित .राजन आदि को खोजा जाता था और कहीं जबाब मिलता कि, अभी गया बेटा या अभी तो साहब सो के ही क्या उठे होंगे तो कहीं -बैठ मै तेरे लिए चाय बनाती हूँ या फिर कहीं - जा उसके कमरे में चला जा आदि ? बाहर निकलकर कृष्णा ने पप्पू से कहा, अबे निकाल जरा जेब से सिगरेट और फिर इतमिनान से सुलगाते हुए पूछा कि, अबे कोटा ले लिया था कल और कहाँ रखा है ?
किसी को होली पसंद नहीं है तो वो कमरे में अंदर से कुंडी लगाकर खुद ही नजरबंद है और पहुँच गए यार –दोस्त , पहले तो प्यार से नाम लेकर बाहर आने को कहा गया ,फिर दरवाजे पर थाप पड़ने लगी, फिर गालियाँ शुरू हुई और काफी ना –नुकर के बाद जब वो बाहर निकला तो फिर ऐसे धो दिया कि, अब सर्फ़ –एक्सल से भी क्या साफ़ होगा और सारे बरामदे में कीच –कीच हो गया ? तो कोई तो पडोसी को बाहर से ताला लगाने को ही कह देते और दोस्त कहते कि, साला पक्का अन्दर ही होगा और बंद दरवाजे के बाहर कान लगाकर आहट लेने की कोशिश करते ?

टेहरी की यादें ---------------- साइंस ब्लाक से सेमल तप्पड
अपने लाल पट्टों के अनूठे डिजायन की वजह से ही दूर-दूर से नजर आ जानेवाला राजकीय प्रताप इंटरमिडिएट कालेज का साईंस-ब्लाक, टेहरी-श्रीनगर/ घनसाली रोड पर पीपल के पेड़ के पास व सड़क के ऊपर और उससे सटा था . इसका वास्तुशिल्प किसी मंदिर जैसा और अपने आप में अनूठा था . टीन की ऊँची छतें , लकड़ी की लंबी-लंबी खिडकियां और मस्तक में गोल छेद ? इसे हिंदीप्रेमी लोग विज्ञान –संकाय भी कहते थे. किसी के सी.वी.रमण, होमी जहाँगीर भाभा या जगदीश चंद्र बसु बनने के इंतजार में, साईंस-ब्लाक वर्षों तक प्रतीक्षारत रहा लेकिन फिर भी उसने देश और प्रदेश को अपनी तरफ से अनेकों डाक्टर और इंजिनियर दिए.
इसके पार्श्व भाग में स्थित जीव-विज्ञान और वनस्पति विज्ञान के संयुक्त कक्ष के बाहर, पानी का एक गोल हौद था . हौद / डिग्गी या टंकी में मौजूद मेढक और मछलियाँ जीव-विज्ञान का प्रतिनिधित्व करती थी तो उससे लिपटी फीके नारंगी रंग के शंकुनुमा फूलों ( हनीशकल ) की बेल वनस्पति शाश्त्र का और हमारे आचार्य थे माननीय रघुनाथ सिंह नयाल ? मूर्ति लहान पर कीर्ति महान ? हम तरस जाते थे कि, गुरूजी कब छुट्टी लेंगे ? वो न खुद लेते थे और न हमें देते थे ? भयंकर दांत दर्द के बावजूद भी, वो रुमाल से गाल दबाये, अपने कक्ष से कक्षा में आते और कहते, “ हाँ ,तो पहलवान कल हम कहाँ थे ” ? फिर वो अपने सधे हाथों से ,लाल- हरे रंग से मॉस का कैपसूल बनाते या फिर हमसे डिसेक्सन-बॉक्स निकालकर, काकरोच की एलिमेंटरी केनाल निकालने को कहते या केंचवे का पोस्टमार्टम करने को ?
फार्मलीन की गंध से सर भन्नाता लेकिन हम अपने को डाक्टर बनने के पायदान पर खड़ा पाकर गर्व का अनुभव करते ? सोचते काश एक सफ़ेद एप्रन पहनकर ये सब करने को मिलता और गले में एक स्टेथस्कोप लटकाने की अनुमति भी मिल जाती तो फिर तो सोने पे सुहागा हो जाता ? शुरू में ,सिर्फ एक बार , गुरूजी हमें युलोथ्रिक्स और स्पाईरोगेरा की खोज में भिलंगना के स्टडी –टूर पर भी ले जाते ? इससे पहले, ये बचपन लेकर आज , हमारे लिए महज काई या लोकल भाषा में शेंवालु होता था ? वाकई में यार मानना पड़ेगा विज्ञान को ?
इसी साईंस-ब्लाक के ठीक सामने, श्रीनगर/ घनसाली रोड के नीचे और उससे सटा हुआ था ,हम थपलियालों के भीष्मपितामःह, दादा मारकंडेयप्रसाद थपलियाल, डिप्टीसाब का घर. रियासत के राजा के हितों की रक्षा के चक्कर में, कानून के रखवारे दादा , रवाईं की निरही जनता के तन-मन पर , तिलाड़ी के मैदान में ऐसी चोट कर बैठे कि, वो घाव नासूर बनकर ,इतिहास के पन्नों में “ तिलाड़ी –कांड ” के नाम से दर्ज होकर मशहूर हो गया और उसकी यादें दिलों में आज भी रिसती हैं . क्षोभ और आक्रोश के उन स्वरों के बारे में मैंने भी किसी पुस्तक में पढ़ा था “ मारकंडे की फ़ौज –पुलिस कु, मचतो यो घमसान नि देख्यो ” . बाद में वक्त ने करवट ली ,भारत आजाद हुआ ,उसके बाद टेहरी रियासत का राज भी गया ,राजा भी गए और मारकंडे दादा भी काफी वक्त गुजारने के बाद अब नहीं रहे लेकिन सबसे बड़ी बात ये हुई कि उनके लड़के रवाईं की जनता की बद्दुआ से बच गए और कोई प्रशासनिक अधिकारी बना , कोई प्रोफ़ेसर ,किसी ने राजस्थान में फैक्टरी लगाई और सबसे छोटे राधावल्लभ प्रधानाचार्य थे व राकेश गोदियाल के ससुर थे .राकेश गोदियाल के पिता टेहरी संस्कृत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य भी रहे .
उनके घर की तीखी ढलान से उतरते हुए, सड़क के पास 3 -4 फिट का एक एक टूटा खंडहर था , जिसमे लाखीराम उर्फ़ घ्यालु भाई के पिता रहते थे ,वे नियमित रूप से नदी से पानी लाकर देने का काम करते व गोविंद चचा के बैंड में मश्की-बाजा बजाते . उनकी बगल में एक तरफ एक नया भवन बना था, जो जोशी की टिंचरी की दुकान के नाम से मशहूर रहा तो दूसरी तरफ जमुना मास्टरजी का घर था ,उनका लड़का बुद्धि था और वो पुर्बियाना मोहल्ले के योगी भाई के ससुर थे ,उनकी पत्नी पर देवी आती थी और वो अक्सर ये कहती थी कि, “ डैम नहीं बनेगा “ ? मास्टरजी थोडा स्थूल थे तो वो दुबली पतली और रोज गंगा नहाने जाती थी ? खैर डैम भी बना और शहर भी तहस -नहस हुआ ? उस समय की ये खासियत थी कि ,सबके मकान लंबे –चौड़े होते थे और उनके साथ बाड़े भी रहते थे ?
उनके नीचे पता नहीं किसका मकान था ,उस पतली गली में ,पर वहां जान्हवीजी रहते थे, वे पोस्ट ऑफिस में स्टाम्प –वेंडर थे और उनका लड़का शिब्बू था व उसके और भाई बहन भी थे ,वह रामलीला के आयोजक और पात्रों में से एक था और बाद में शायद सिंचाई विभाग या टी.एच.डी.सी .में लगा . उनके नीचे डाक्टर ब्रिजभूसण नौटियालजी का घर था, उनकी कई लड़कियां और एक लड़का अरविन्द था . वे टेहरी में अस्पताल में भी तैनात रहे और उसी दौरान टेहरी का मशहूर गोलीकांड भी हुआ था . उनके पुश्तैनी घर में उनके छोटे भाई अंत तक रहे, वो जंगलात में थे और उनकी पत्नी, जिन्हें मै मौसी कहता था ,उनका नाम सरोजिनी था, उनका एक बेटा और बेटी थी . उनकी बेटी अंजलि बाद में डाक्टर बनी ?
डाक्टर ब्रिजभूसण नौटियालजी ने अपने घर के सामने एक भवन बनाया था, जिसमे देहरादून के मशहूर डाक्टर राममूर्तिजी ने एक एक्सरे क्लिनिक खोला था और वो भी शुरू में कभी –कभी वहां बैठकर मरीजों को देखते थे व क्लिनिक की जिम्मेदारी एक घिल्डियालजी के पास थी ,जिन्हें हम उनकी मुछों के कारण सैम मानेक शाह कहते थे .उनके बाल और वो खुद भी ,फिटनेस के मामले में किसी फौजी से कम नहीं थे, वो देहरादून के निवासी थे ?
उसके बाद हमारे अन्य दादाओं का मशहूर तिमंजला भवन ,थपलियाल-हाउस था . जिसकी सड़क से लगती तल मंजिल में दुकाने और सेनेटरी विभाग का स्टोर था तो गली में उसकी दूसरी मंजिल थी और गली के दूसरी तरफ भी अंदर तक फैला कोठा /घर था ? और गली के ऊपर से दोनों भाग किसी सुरंग की तरह जुड़े थे .आन्नी दादा के पिताजी की मुझे याद नहीं पर सुना था की वो भी शायद डिप्टी थे ? उनके एक बड़े भाई हर्षु दादा को मैंने देखा था, उनकी भी अल्प आयु में ही मृत्यु हो गई थी और उनके दो लड़के व एक लड़की थी और उनका परिवार के लोग बाद में उत्तरकाशी में रहते थे और उनका एक लड़का शायद फार्मेशिस्ट था . आन्नी दादा के दूसरे बड़े भाई श्रीकृष्ण थपलियाल सेना में मेजर थे . हमारे बगल में रहनेवाली माधुरी डंगवाल के वो मामा लोग थे .
ऊपर की तीसरी मंजिल में गिरीश गैरोला के पिता श्री गुणानन्दजी रहते थे, वे डाक्टर गैरोलाजी के बड़े भाई थे व गिरीश से मित्रता के कारण मै अक्सर उसके घर जाता था और उसकी बगल में दादा हरीनन्दजी रहते थे , उनका लड़का प्रभात पशु –चिकित्सक था और छोटा जमुना था ,जो बाद में आई.टी. आई .देहरादून में अध्यापक भी रहा. जमुना दादा की तीन –चार बहनें भी थी और सबसे छोटी हमारे समय में पढ़ती थी . उनकी बगल में दादा दयानंदजी रहते थे ,वो प्रताप कालेज के प्रिंसिपल भी रहे और डिप्टी –कलेक्टर भी ? उनका लड़का राजू दादा पी.टी .आई थे व प्रकाश हमारे समकक्ष था. मकान के अंदरूनी हिस्से में एक तरफ तहबिलदारसाब रहते थे जो ट्रेजरी का कामकाज देखते थे व उनका लड़का दीप चौधरी हमारा क्लासफेलो था व उसकी एक बहन मंजू व दो भाई और थे .एक का नाम लोकेश उर्फ़ लल्लू था . ये लोग कुमाउनी थे और तहबिलदारसाब सामाजिक प्राणी थे .वहां खादी भंडारवाले भी रहते थे , मंगल भाकुनी के पिता भी ,एक मुच्छड पुलिसवाला भी रहता था व बाद में खादी भंडारवाला पांडे भी रहा . वहां एडवोकेट केशर सिंह और राजेंद्र सेमवाल भी रहते थे
तिमंजले से सटे व सुमनचौक जानेवाली सड़क के ऊपर उनके एक –दो कमरे और भी धे ,जिनमे घंटाघर रोड से सीढ़ी चढ़कर जाना होता था वहां नागपुरी पंडितजी रहते थे ,उनके लड़के शायद वसंत और दिन्नु थे . थपलियाल-हाउस में लगभग 20 -22 कमरे रहे होंगे ? इसलिए इसे थपलियालों का कोठा भी कहते थे ?
उनके नीचे श्री प्रेमदत्त डोभाल जी का घर था. प्रेमदत्तजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे . उनके छोटे भाई का नाम शायद रामप्रशाद डोभाल था, जो ऋषिकेश में रहते थे . प्रेमदत्तजी के लड़के सुशील और विपुल हैं व विपुल का चचेरा भाई जयेश है .सुशील हमारा दोस्त था ,फुटबाल का दीवाना और एक मशहूर खिलाडी था.सुशील की तीन बहने भी हैं . इंदु दीदी ,आभा और एक और छोटी बहन है . हरीश डंडरियाल शायद उनका किरायेदार था और उसका भाई प्रवेश डिप्टी कलेक्टर है और कुछ वर्ष पहले नई टेहरी में भी तैनात था.
इसी गली /मोहल्ले में अपने समय के महान तांत्रिक का भी घर .था. वो कहाँ पर था कुछ याद नहीं आया ? फिर भोले बाबा का इलाका था, जिसमें एक छोर पर महंतों के घर व दूसरे सिरे पर शिव –मंदिर था . हमारे भोले भंडारी को सत्येश्वर – महादेव के नाम से जाना जाता था व इस मोहल्ले को उनके नाम से . हमारे समय में इस मंदिर के महंत श्री सोमवार गिरी थे और उनके भाई भोलागिरी ,संगम रोड पर स्थित नर्मदेश्वर महादेव के महंथ थे .उनकी पान की दुकान शहर की सबसे मशहूर पान की दुकान थी और बुद्धिजीवियों का अड्डा भी थी ? सोमवार गिरीजी के लड़के बुद्धि भाई ,सुद्धि भाई ,उमाशंकर ,रामचंद्र और लक्ष्मण थे . लक्ष्मण भुला स्वयं को “ कुंवर साहब ” कहते थे व कहलवाना भी पसंद करते थे . भोले की बूटी मंदिर में उनके सेवकों के पास उपलब्ध होती थी .

मेरी टेहरी -------- साइंस ब्लाक से -- सेमल तप्पड
( कल से आगे आज ,गुरुवार
शिव मंदिर के चरणों में ही एक मकान था, जो पहले बंद था और फिर हमारे सामने ही धीरे –धीरे खंडहर में तब्दील होता गया ? मंदिर और उसके बीच से एक सड़क भिलंगना की तरफ जाती थी, जो चंद फुट के फासले पर, पुंडीरजी के घर की पूर्वी दिशा से आनेवाली सड़क से मिल जाती थी और चंद क़दमों के बाद, चंद सीढियाँ उतरने के बाद ,अपने ऊपर बसे पांथरियों, बहुगुणाओं, ड्यूडियों,गैरोलाओं और घिल्डीयालों को भी अपने साथ, पानी भरने के लिए भिलंगना लेकर जाती थी ? उस ज़माने में नदी पीने का पानी भरने ,नहाने–कपड़े धोने के अलावा शौच जाने के काम भी आती थी . तमाम घाटों के आजू बाजू, गंदगी पसरी रहती थी ?
पांथरियोंवाली गली में कात्यानी और कांता प्रसाद नौटियाल का घर था, उनकी एक बहन भी थी ? पांथरियों में मोहन भाई व भैय्या का घर था, उनकी कई बहने थी, ब्रजबाला, ज्ञान लप्पी,शांति और शायद एक-आध बहन और भी थी ? पांथरीजी का नाम शायद रामप्रसाद पांथरी था और वो डाक-तार विभाग में थे ? हमारे समय में मोहन भाई, एस.डी. आई. थे और भैय्या बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में कार्यरत थे ? बहुगुणाओं में हमारे समय में कुलेंद्र / नान्नु मामा के पिताजी ही सबसे वरिष्ठ थे . उनके आगे चाँद और कुक्की मामू थे ? इनके दादा शायद डिप्टी साब थे ? यहीँ डाक्टर नागेन्द्र / नागी बहुगुणा का घर भी था . हमारे मित्र भुला ईशानदत्त, चित्रकार ,जो वर्तमान में देहली आर्ट –कालेज में कला का प्राध्यापक है शायद इनमें से ही किसी के घर में रहता था ? उसकी बुढ़जी गर्ल्स स्कूल में थी व उनका कद छोटा था ?
गैरोला परिवार में बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाक्टर महावीर प्रसाद गैरोला सर्वश्रेष्ठ थे .वो प्रताप कालेज में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक रहे ,नगरपालिका के अध्यक्ष भी रहे. संगम के ऊपर बना रेत का असफल बगीचा, उनके दौर में ही बना था ,जो बाद में कूड़ाघर में तब्दील हो गया था और उसमें नारियल के पेड़ जैसे कुछ पेड़ थे ? हमारे समय में महावीर प्रसादजी वकालत करते थे , उन्होंने अंग्रेजी और गढ़वाली में कई पुस्तकें लिखी जैसे – खिचड़ी, कपाली की छमोट आदि और टेहरी के अंतिम दौर में भी उनके घर में साहित्य की चर्चा होती थी और कविताओं की महफ़िलें सजती थी. डाक्टर साहब की एक खासियत थी कि, जब टेहरी –बाँध के संदर्भ में सारा शहर मोदी कहता तो वो कहते थे केजरीवाल ? उनके दूसरे भाई व ठग्गू भाई के पिता ,हिमकेश्वरजी भी वकील थे, वकालात के अलावा वे कुटण-पिसण जैसे गृहकार्यों में भी रूचि लेते थे . आजकल जैसे गौ-रक्षकों की पूरे देश में चर्चा है तो उनके बारे में भी लोग ये कहते थे कि, वो गायों को दुहने के विशेषज्ञ थे ? उनके तीसरे भाई रग्घू चचा को हमने शुरू में कोआपरेटिव स्टोर में देखा , लक्ष्मी टाकिज में पार्टनर देखा और सुना कि, वो बड़े अच्छे चित्रकार भी थे, ईशानदत्त बहुगुणा ने भी चित्रकारी उनसे ही सीखी थी .उनके एक भाई पुलिस में भी थे और उनकी एक बहिन भी थी . उनका परिवार, टेहरी में संयुक्त की एक मिसाल माना जाता था.
उनकी बगल में घिल्डीयालों का कोठा था. छुन्नी मामू के पिताजी कोर्ट में अर्जनवीस थे, हमें उनकी याद है और लोग उनको उनके संछिप्त नाम भरोसी से ही अधिक जानते थे. छुन्नी मामू की बड़ी माँ के लड़के, कम्मू मामू हैं और वो विक्रमवीर कवीजी के भांजे हैं और उन्होंने बाद में शिव मंदिर के पास किताबों की दुकान भी खोली थी और पुराने दरबार में राजाओं की भगवती राजराजेश्वरी के मंदिर के पुजारी थे और वहीँ रहते थे .उनके तीन लड़के हैं, एक कोषागार अधिकारी और दो अभियंता . बाकी बुद्धि, छुन्नी, दिन्नू तीन भाई और उनकी एक बहन है . पिता की मृत्यु के बाद मामू बुद्धी ने परिवार की अर्थ व्यवस्था के लिए बरसों बस अड्डे में कृष्णा राणा के होटल के आगे पान की दुकान/ ठेली लगाई और फिर सुमन चौक में भैरो बाबा की छत्रछाया में सब्जी की दुकान चलाई और फिर गढ़वाल विकास निगम की नौकरी में चल दिए. छुन्नी ने बरसों सर--रर-प्वां-प्वां से अपने कैरियर की शुरुआत की, फिर लोगों को दिलीप कुमार, देवानंद और हेमामालिनी की दुनिया की सैर करवाता रहा और फिर बाँध –विरोधी नेता बन गया और अब भाजपा के साथ भी है. वो और दस –पंद्रह लोग अंत समय तक टेहरी में डटे रहे, वो रात में मशाल जलूस भी निकालते रहे और उत्तरकाशी से मनेरी का पानी अचानक छोड़ दिए जाने के कारण मरते –मरते बचा ?
उसके छोटे भाई दिन्नू का शिव मंदिर के पास पान का खोखा था . उनके ताउजी को तो हमने देखा नहीं लेकिन उनके दो लड़के आर्यानन्द और गोत्रानंद घिल्डियाल थे . बड़े आर्यानन्द चमोली में गोपेश्वर या कहीं और प्रधानाध्यापक थे और उनकी मृत्यु के बाद उनका परिवार टेहरी आया था, उनकी बीचवाली लड़की मेरे साथ पढ़ी थी और बडिवाली की शादी भैय्या पांथरी से हुई थी. गोत्रानंदजी वकील थे ,सरकार के वकील भी रहे, इसके अलावा सामुद्रिक शास्त्र / हस्त रेखा विज्ञान में भी उनकी रुचि थी, बाद में वे घंटाघर में रहने लगे थे और उनके दो पुत्रों में एक एडवोकेट है. दूसरे ताउजी, श्री धर्मानंद घिल्डियाल हमारे समय में प्रताप कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे,नियम –धरम से रहनेवाले थे,सर पर शिखा रखते थे, जल्दी क्रोधित हो जाते थे और भक्ति में लीन रहते थे. उनका बड़ा बेटा सुंदरु भाई हमारे समय में प्रताप कालेज के पुस्तकालय में थे और जनार्दन हमारी उमर का रहा होगा ? छुन्नी के घर के बाहर सेमल-तप्पड़रोड पर एक तिबारी के खंबेवाला छोटा घर था ,जिसे वो अपने खसीर वाले चाचा का बताता था . वो कहता था कि, उनकी कुलदेवी कंशमर्दनी है और उसे मदिरा का भोग लगाया जाता है ?
बाकी सुबह चार बजे उठ जाने वाले मंगली मामू किसके लड़के थे, ये नहीं मालुम ? उनको हम, सुबह –शाम टी.जी.एम.ओ. के आफिस में बैठते देखते या कई बार शाम को पुलिस थाने में किसी ड्राईवर –कंडक्टर का लफड़ा सुलझाते देखते, कभी किसी शाम को, फुरसत के क्षणों में वो डाक्टर बडोनीजी की दुकान के आगे चेस / शतरंज खेलते या देखते दिख जाते . या फिर रविवार को या किसी अन्य दिन प्रताप कालेज के मैदान में, किसी टीम की ओर से क्रिकेट खेलने पहुँच जाते और उनको आउट करना बड़ा मुश्किल होता था, वो अच्छे बॉलर भी थे. वो करियप्पा फुटबाल टूर्नामेंट में रेफरी की भूमिका भी निभाते थे और अपने ज़माने में गोलकीपर हुआ करते थे . वो शायद पहले फ़ौज में थे .उनके बड़े भाई टिकेश्वर प्रसाद थे व उनका लड़का भादू / माधू है .
इस मोहल्ले को अधिकतर लोग ड्यून्डी मोहल्ला और कुछ लोग घिल्डयालों का बगड़ भी बोलते थे ? डयुंडी –कोठे में कितने परिवार रहते थे, ये मुझे नहीं मालुम,पर यह एक बुलंद दरवाजे वाला ,हवेलीनुमा घर था ? हैट के शौक़ीन बुद्धिवल्लभ डयुंडी, राजेश के पिता थे व शायद वन विभाग में थे ? भाई दिनेश डयुंडी पता नहीं पहले कहाँ थे पर बाद में जे.पी.कंपनी में थे और उनसे कई बातें होती थी और अब वो नहीं रहे . मदन डयुंडी, सालों से मुंबई में हैं और एक कुशल तैराक हुआ करते थे . भगवती डयुंडी, यूनुस भाई के दोस्त थे. आशा डयुंडी और उस के पिता भी वहीँ रहते थे, वह बाद में राजमाता कालेज में टीचर थी .शायद सुधीर डयुंडी भी पहले उसी कोठे में रहता था और शायद बाद में उन्होंने रज्जाक मियां के बाजू में दूसरा घर बनाया था. एक डयुंडीजी और थे, नाम नहीं याद आ रहा है , वे शायद एल.एस. जी डी में सेवारत थे पर बड़े ऊँचे कलाकार थे ? महेंद्र शाही, उन के किस्से सुनाता था और उनको चचा कहता था ? बाकी सड़क के उस पार भी एक डयुंडी संजय डयुंडी रहता था ,उसके पिता अध्यापक थे , प्रताप कालेज में भी रहे , उसका एक छोटा भाई भी है ,शायद विक्कू नाम है और उसके घर में जाई के सफ़ेद फूलों के पेड़ भी थे और उसके बगल में भाई शिवप्रसाद रहते थे और उनकी एक बहन भी थी ?

टेहरी का घंटाघर------मोहल्ला ?
टेहरी शहर की शेष यादों में, टेहरी झील के पानी से अब जो अक्स सबसे अधिक उभरकर सामने आता है, वो है हमारी टेहरी का घंटाघर ? हमारे शहर की आन -बान और शान था ये घंटाघर, बाकी प्रतीक तो सब राजशाही के प्रतीक थे,राजाओं की शानो-शौकत और उनके वैभव से जुड़े हुआ और राजाओं के जुल्मों-सितम की कहानियां भी कुछ कम नहीं थी, जिनसे सबसे दुखद और कारुणिक कहानी, टेहरी रियासत के मुक्तिदूत अमर शहीद श्री श्रीदेवसुमन की थी, उनके त्याग और बलिदान की गाथा ?
हालाँकि घंटाघर का निर्माण भी टेहरी के राजा ने किया था पर घंटाघर किसी भी मामले में किसी भी तरह का दोषी नहीं था, उल्टे यह काफी जन –उपयोगी था इसलिए वहां के लोग इसे दिल से प्यार करते थे ? ये शहर के लोगों को हर घंटे, जिंदगी के गुजरे हुए पलों/ क्षणों का अहसास भी करता था और उनका हिसाब भी देता था,ये उनके जीवन को व्यवस्थित भी करता था ---- चलो उठो, आलस्य त्यागो सुबह हो गई है ; ८ बज गए हैं, स्कूल और दफ्तर जाने की तैयारी करो ,नहाओ-धोओ, बस्ता बनाओ, खाना खाओ ताकि ९ बजे तक घर से निकल सको ; दोपहर के एक बज चुके हैं, भले ही बाबु लोग घर से खाना खाके आये हों पर दफ्तरों के / में भोजन का समय हो चुका है, फाइलें बंद ,काम बंद,बड़े साहब लंच के लिए घर जाएंगे तो बाबू लोग चाय- पकोड़ी , पान, बीड़ी –सिगरेट का सेवन करेंगे .
स्कूलों में भी इंटरवेल या हाफटाईम का समय हो गया है, बच्चे धींगामुश्ती करेंगे, आपस में धौल –धप्पा मारेंगे, कुछ टिफिन खाएंगे और बाकी चाय ,पकोड़ी ,जलेबी, सेळ और मिट्ठे सेळ के चक्कर में , किसी जुगाड़ की खोज में निकल जाएँगे , कुछ किसी गांववाले की ककड़ी टपाने के चक्कर में रहेंगे या फिर मांग के खायेंगे ,“ अबे दे न, तेरी माँ का, एक पीस ? ” पाकेट–मनी का हमारे बचपन में कोई खास चलन नहीं था, खासकर पहाड़ी समुदाय में, कभी घरवालों से लड़ –झगड़ कर दुअन्नी –चवन्नी ले ली तो अलग बात है या दूर से किसी रिश्तेदार ने अठन्नी या एक रूपया दे दिया तो वो अलग बात है ? वैसे तो घरवाले उसे भी मांगकर रख लेना चाहते थे पर हम उस पर अपना हक़ जताकर, उसे लेने के लिए, पूरी कोशिश करते थे ?
हमारा एक ही तर्क होता था कि , मामा या नाना ने मुझे दिया है ? और अंत में माँ उसे गुस्से में जमीन पर फेंककर कहती थी , “ ले मर ” पर बापों के आगे ये नाटक नहीं चलता था ? घरवाले इसे फिजूलखर्ची मानते थे ? हाँ बाहरी सरकारी अधिकारियों और दुकानदारों के बच्चों की स्तिथि जेबखर्च के मामले काफी अच्छी होती थी, उनको भी अपनी सुरक्षा के लिहाज से सबका साथ सबका विकास वाला नारा उस ज़माने में भी अच्छा लगता था खेलने –कूदने, मस्ती करने और घूमने के लिए तो हमारे लोगों को भी भला क्या आपत्ति होनी थी ? पोलोफील्ड सिगरेट –बीड़ी पीने के लिहाज से एक निरापद स्थान था, जहां से किसी भी ऑफिस, घर या दफ्तर जानेवाला कोई आदमी मुश्किल से ही गुजरता था. कोर्ट- कचहरी जानेवाले मॉडल स्कूल के सामने से सीढियाँ चढ कर जाते थे व पी.डब्लु.डी ऑफिस का गेट भी पोलो फील्ड के प्रवेशद्वार से पहले ही था ?
साथ ही घंटाघर में धूम्रपान का मतलब चायपान करने आए किसी अध्यापक द्वारा देख लिए जाने के खतरे से खाली नहीं था ? दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी था कि, इस मैदान के आखिरी छोर में मौजूद राजमाता कालेज का सामनेवाला गेट ज्यादातर बंद ही रहता था और प्रवेश व निकास अधिकतर अस्पताल के पासवाले पिछले द्वार से ही होता था . उस ज़माने में भी रोमियो,आशिक और महबूब क्यों नहीं होते होंगे पर वो अल्पसंख्यक होते थे और भला किसी की क्या मजाल थी कि ,कोई किसी स्कूल के गेट पर जाकर खड़ा हो जाए और किसी का इन्तजार करे ? प्यार –मोहोब्बत का दायरा खाली गली-मोहल्ले, बाजार, रामलीला या नुमायश तक ही सीमित रहता था क्योंकि जवां दिलों को धड़कने से रोका तो नहीं जा सकता था ?
हालाँकि हमारे प्रताप कालेज में आने के 1-2 साल बाद लगभग 1970 के दशक से पोलो फील्ड की स्तिथि में बदलाव आने लगा था, अब यहाँ दिन में गुत्थी ( पैसों को दूर से एक गड्ढे में फेंककर, बाद में किसी एक को पत्थर से मारने का जुआ ) और कालेज से भागकर दिनभर क्रिकेट खेलने का ख़राब सिलसिला चालू हो गया था ? बैटिंग अधिकतर जान –बूझकर राजमाता कालेज के छोर की तरफ ही रखी जाती थी और फिर जब बॉल किसी धोनी, पोलार्ड या स्मिथ के हाथ से जाने –अनजाने में छूट जाती थी तो फिर सीधे उनके गेट से टन्न से टकराती थी . सर्दियों की गुनगुनी धूप में स्कूल के लाँन में बैठी छात्राओं को शैली,कीट्स या बायरन अथवा महादेवी वर्मा या सुमित्रानंदन पंत को पढ़ाती हुई टीचर मैडम की भृकुटियां, विषय से ध्यान भटकने के कारण गुस्से से तन जाती थी ?
अब खेल बंद ,एम्पायर भी खामोश, दर्शकों के मन में भी आगे का हाल जानने की उत्सुकता होती थी .फिर कोई खिलाड़ी दूर से ही हिम्मत करके चिल्लाता, बॉल वापिस फेंको प्लीज . कभी यह प्लीज जल्दी असर कर जाता था नहीं तो दर्शकों में मौजूद किसी छोटे बालक को बॉल लेकर आने महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौपी जाती थी ? यह सिलसिला लगभग शाम चार बजे तक चलता रहता था , जिस क्लास का पीरियड खाली होता वो मुंह उठाकर चली आती और फिर अगला पीरियड भी मिस कर देती थी ? घंटाघर रोज शाम को चार बजाकर घरवालों को यह बताता था कि, स्कूलों की छुट्टी हो गई है और अब बच्चे घर आनेवाले हैं और पांच बजे ऑफिसवालों के घर आने की सूचना देता था और रात के दस –ग्यारह बजे यह अनुरोध भी करता था कि, अब बहुत रात हो चुकी है सो जाओ, सुबह उठना भी है, स्कूल और दफ्तर भी जाना है आदि –आदि ?
काफी बाद में मैने एकबार खुद से ये सवाल किया कि, भला हमारे राजा ने ये घंटाघर क्यों बनवाया होगा और वो भी अपने किसी बाप –दादा के नाम पर न बनाकर ,अंग्रेजों की रानी के सिंहासनारूढ़ होने की हीरक –जयंती के उपलक्ष में ? हम तो कभी उनके गुलाम भी नहीं रहे और गोरखों के शासन से गढ़वाल को मुक्त कराने के एवज में अंग्रेज पर्याप्त हर्जा –खर्चा भी वसूल चुके थे राजा का आधा से अधिक ईलाका, युद्ध खर्च के रूप लेकर ? अंग्रेजों ने प्रद्युमन्न साह की मृत्यु के बाद गोरखों को भगाकर लगभग साठ हजार का बिल उसके वारिसों को भेजा था . राजा वैसे कंगाल तो होते नहीं थे पर उन दिनों सत्ता से बाहर रहने के कारण काफी दीन -हीन हो गए थे ? पैसों के अभाव में हमारे राजा को मज़बूरी में कहना पड़ा “ तो ठीक है अंग्रेज बहादुर फिर ,गंगा पार का ईलाका आज से तुम्हारा और गंगावार का हमारा ? ” और उन धूर्त अंग्रेजों ने मुस्कराकर कहा होगा, “ ओके ,ओके, थैंक्यू ” और थोड़ा चापलूसी दिखाते हुए ,उसके बाद हिज हाईनेस भी जोड़ दिया होगा ? लेकिन उसके बाद भी शायद हमारे राजा को ये डर रहा होगा कि, ये हरामी की औलाद कोई खूबसूरत बहाना गढ़कर, येन –केन प्रकरेंण उसका शेष राज्य भी न हड़पलें ,जैसा कि वे अनेक देशी रियासतों के साथ करके पूरे भारत को अपने अधीन कर चुके थे . वरना और क्या कारण हो सकता था ?
बहरहाल, उस शहर की खूबसुरती में चार –चाँद जोड़ता हुआ वो घंटाघर हमारे शहर की शोभा और एक प्रतीक बन चुका था क्योंकि उस जैसा सुंदर और शानदार घंटाघर दूर –दूर तक तो क्या, शायद पूरे हिंदुस्तान में ही नहीं था ? वैसे उस जगह का एक नाम और भी था , “ चना खेत ” ? जहाँ शायद अतीत में राजाओं के घोड़ों के लिए चने उगाये जाते हों ? हमारे ज़माने में भी वहां पर वाकई में एक बड़ा खेत था ,जिसमें बाद में स्वामी रामतीर्थ महाविद्यालय के टीन सेटों का निर्माण हुआ था ? उस खेत के चारों ओर बहुत सारे आम के पेड़ थे और बीच में अन्य साग –सब्जियों के साथ मटर भी उगाए जाते थे और लोग / लड़के मटर चोर कर खाया करते थे और यह खेत नार्मल स्कूल के अधीन था .
घंटाघर में लोकबस्ती कम और स्कूल और सरकारी कार्यालय अधिक थे और ये सिलसला मोतीबाग तक चला गया था . घंटाघर दरसल में हमारे शहर का शैक्षणिक केंद्र / एजुकेशनल - हब था . इसमें सबसे पुराना शायद प्रताप हाईस्कूल था, जो हमारे पूरे जिले का सबसे पहला हाईस्कूल था, जो बाद में इंटरमीडियट कालेज बन गया था, इसलिए इसकी ख्याति पूरे टेहरी गढ़वाल में थी. इसके बाद यहाँ आठवीं कक्षा तक के अध्यापकों को प्रशिक्षित करनेवाला नार्मल स्कूल था और उसके अधीन बुनियादी शिक्षा प्रदान करनेवाला एक मॉडल स्कूल था, जिसका शुद्ध हिंदी नाम राजकीय आदर्श विद्यालय था. नार्मल स्कूल का एक लंबा –चौड़ा होस्टल भी था, क्योंकि वह एक आवासीय विद्यालय था . टीचर बनने का प्रशिक्षण प्राप्त करने की एक प्रमुख शर्त, स्कूल के होस्टल में रहना थी, भले ही लड़का चाहे बाहर का हो या लोकल ? आदर्श विद्यालय की उपरी मंजिल में प्रताप कालेज का होस्टल था . नार्मल स्कूल और प्रताप इंटर कालेज के कई-कई भवन थे और बड़े –बड़े खेल के मैदान भी थे . नार्मल स्कूल के कार्यालय वाले भवन के पिछले हिस्से में ही शिक्षा –विभाग का कार्यालय भी था, जहाँ जिला उप विद्यालय निरीक्षक और अनेकों उप उप विद्यालय निरीक्षक बैठते थे, जो जनमानस में डिप्टी साब और एस.डी.आई. के नाम से जाने जाते थे .बाद में यह कार्यालय शायद बेसिक शिक्षा अधिकारी का कार्यालय हो गया था.
उसके बाद टेहरी की राजमाता स्वर्गीय कमलेन्दुमति साह द्वारा उनके पति के नाम पर नरेन्द्र महिला विद्यालय की स्थापना हमारे बाल्यकाल में ही 1961-62 हुई, यहाँ दीदी –भुलियाँ और शहर की अन्य लड़कियां भी पढ़ती थी और इसमें एक अंध विद्यालय व निराश्रित वृद्ध महिलाओं का आश्रम भी था . कालांतर में पोलो फील्ड में सरस्वती शिशु मंदिर भी बना और उसके बाद कोर्ट के पास आँल सेंट कौन्वेंट स्कूल भी खुला और बाद में पोलो फील्ड में टेहरी बाँध परियोजना के अनेक कार्यालयों के टीन –सेट भी बने थे . नार्मल / मॉडल स्कूल के फील्ड और प्रताप इंटर कालेज के फील्डों के बीच में था टेहरी का जिला कारागार, जो राजाओं के ज़माने में रियासत की कुख्यात जेल थी . यहाँ हमारी आजादी के दीवानों और प्रजातंत्र के संग्राम में सहभागी प्रजामंडल के नवयुवकों ने काफी यातनाएं सही थी और उनके महानायक व आदर्श श्रीदेवसुमन ने 84 दिन भूखे रहकर प्राण त्याग दिए थे .
उनके मुंह को संडसी से खोलकर उन्हें जबरन दूध पिलाने की कोशिश की जाती थी तो वो उल्टी कर देते थे ? उनके हाथ –पावों को एक मन / मण (40 सेर ) वजनी लोहे की बेड़ियों से जकड़ कर रखा गया था ? सुमनजी ने तो यहाँ तक कह दिया कि, राजा बेशक बने रहें और राजकाज को जनप्रतिनिधियों की चुनि हुई परिषद् के माध्यम से चलाया जाए ? टेहरी रियासत की जेल की गिनती उस समय भारत की कुख्यात जेलों में होती थी . तुमने देखा था न घंटाघर वो सब कुछ अपनी आँखों से ,वो अन्याय और वो अत्याचार ? दुनिया भर के लोगों यहाँ तक कि शायद गाँधीजी ने भी उनकी रिहाई के संबंध में तत्कालीन राजा को लिखा भी था ? सुमनजी ने पता नहीं आयरलैंड के आजादी के दीवानों का वो गाना सुना था कि नहीं, “ हम होंगे कामयाब एक दिन--- मन में है विश्वास, हाँ पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन ?”
लेकिन अफ़सोस, वो दिन आया तो जरूर पर सुमनजी उस कामयाबी को देखने से पहले ही अमर शहीद बन चुके थे ? और तुम्हें याद है घंटाघर कि आजादी के बाद उनकी वह काल-कोठरी उनके स्मारक के रूप में सुरक्षित कर दी गई और तुम तो जानते ही थे घंटाघर कि टेहरी डूबने तक हर साल 25 जुलाई को हम शहरवाले हर वर्ष उनकी पुण्य –तिथि पर ,टेहरी जेल में अपनी आजादी के प्रतीक उस तीर्थ के दर्शन करने जाते थे , उस महानायक को नमन करते थे, उसकी स्मृति का अभिवादन करते थे और उन बेड़ियों को हाथ में उठाकर उनके वजन का अंदाज लगाते थे और उनकी कठोर यातनाओं का अनुभव करते थे और मन ही मन में रोते थे और राजाओं को जी भरकर कोसते थे, ये तो तुम भी जानते ही थे घंटाघर, क्यों ?

टेहरी का घंटाघर --मोहल्ला ? अंतिम किश्त .
टेहरी के घंटाघर के बारे में जनकवि श्री जीवानंद श्रीयाल ने उसकी महिमा का वर्णन करते हुए अंत में लिखा था कि,“--- कभी बजौंदो सोळ –सतर ” ? मतलब घंटाघर बुरे दौर से गुजरने लगा था , क्या ये शहर का बुरा वक्त आने का संकेत था ,कोई अदृश्य चेतावनी थी और हम समझ नहीं पाए और गाफ़िल रहे कि, “ डैम नहीं बनेगा ” ? लोग मजाक में कहते ,“ अरे मजाक है, कोई डैम बनाना – अजी इनके बाप से नि बणता डैम ?”. वक्त गुजरता रहा, लोग एकजुट नहीं हो पाए और कपाळ पर डाम लगता रहा और लगता चला गया और अंत में हमारा मुर्दा मर गया और कपाल –क्रिया भी हो गई और शहर की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ा दी गई, शोकसभाओं का आयोजन किया गया और श्रद्धांजलि भी अर्पित की गई और तब से लेकर अब तक हम सोग मना रहे हैं, शोक –संतप्त हैं .
लेकिन कभी वो शहर जीवंत था ? नरेन्द्र महिला विद्यालय के पिछले गेट के ठीक सामने, कोर्ट –रोड पर मुंसिफ मजिस्ट्रेट का सरकारी क्वार्टर था . मुंसिफ मजिस्ट्रेट तो वैसे कई आए गए होंगे पर हमने नुकीली मूंछोंवाले, बंद गले का कोट पहनने वाले , कुंवर सावल सिंह को देखा था ,जो छोटे कद का होने के बावजूद बड़ा दबंग था और उतना ही मजाकिया भी. कुंवर साहब अक्सर हाथ में लकड़ी का काला –रुल लेकर चलते थे और कई नौजवान वकीलों से कहते थे कि, “ जाओ, पहले कानून पढ़कर आओ फिर बहस करना ” ? एक बार उन्हें करियप्पा फुटबाल मैच का मुख्य अतिथि बनाया गया और मैच ख़तम होने पर आ गया पर जनाब आए नहीं, तो एक मित्र जो उनसे परिचित थे ,जीप लेकर महोदय को लेने चल दिए ,
अगले ने घंटाघर में पान भी खाया और जीप में रखा रंगीन चश्मा भी लगा लिया ? मजिस्ट्रेट महोदय खुले में हंडल आम के पेड़ के नीचे कोर्ट लगाए बैठे थे ,सर्दियों के दिन थे . जीप दनदनाती हुई कोर्ट कंपौंड में घुसी तो ठीक वहीँ पर रुकी, जहाँ कोर्ट चालू था और अगले ने जीप से उतरते ही तेजी से कहा , “ सर चलिए, आपका इंतजार हो रहा है ,मैच भी ख़तम होनेवाला है ? ” साहब ने बड़े गौर से उसकी तरफ देखा और कहा, अरे भई तुमने तो कोर्ट की मानहानि करदी ,देखते नहीं हो कि, कोर्ट चालू है, ऊपर से पान भी चबा रहे हो तो ये तो और भी बेअदबी हुई और साथ में आँखों पर रंगीन चश्मा भी लगाए हुए हो तो ये तो फिर तौहीन पर तौहीन ? क्यों न तुम्हें कोर्ट की मानहानि के जुर्म में अंदर कर दिया जाय ,क्यों ? अगले को तो एकदम सांप सूंघ गया, काटो तो खून नहीं ,मुंह से जुबान भी गायब, सारी तड़ी निकल गई ? फिर उन्होंने अपने मुंशी और चपरासी को कुछ निर्देश दिए और कहा चलो . अगले की जान में तब जान आई . उसने भी कईयों को ये कहते हुए ही सुना था कि, सांवल सिंह क्रैक है पर आज खुद भी देख लिया था ?
मुंसिफ मजिस्ट्रेट के घर की बगल से एक रोड ऊपर एल.एस.जी.डी. ऑफिस की तरफ जाती थी तो उसकी शुरुआत में ही,सड़क की बगल में जिला उद्यान अधिकारी का घर था, कभी उसमे कृष्णकांत जोशी के पिता भी रहे थे, वह कई साल वहां रहा था, आगे कोने में एक पक्का बंगला था, जिसमे सुना जिला वन अधिकारी का निवास था, वह ज्यादातर खाली ही रहता था और वहां एक चौकीदार रहता था, कई बार हम उसके बरामदे में भी बैठते थे. यह ईलाका भले ही पॉश न रहा हो पर दरसल में यह टेहरी का सिविल-लाइंस था , जहाँ बड़े सरकारी अधिकारियों के सरकारी निवास थे और लगभग सभी की छतें टीन की थी . घंटाघर की तरफ आगे बढ़ते हुए, लगभग मुख्य सड़क से ही सटा हुआ जज साहब का निवास था. एक जज सरदारजी भी होते थे और उनकी लड़की गुरुमीत शायद हमारे साथ पढ़ी भी थी ? दूसरे एक जज मित्तल साहब की भी मुझे याद है और उनके दो लड़के थे, छोटे का नाम रंजन था और “ शिवानी ”,ये नाम भी ,कईयों ने सुना ही होगा ? आगे सब डिविजनल मजिस्ट्रेट / एस.डी.एम साहब का बंगला था, जिन्हें पहले खण्डमंडलाधीश भी कहा जाता था. इसी लाईन के अंत में प्रताप कालेज का प्रधानाचार्य आवास था, जहाँ हमने श्री वसीमुल हक़ रिजवी, श्री अख्तर हुसैन, श्री सत्यनारायण पाठक, श्री गोपाल राम बहुगुणा जैसी शख्शियतों को रहते देखा था ?
इन घरों के सामने से गुजरने वाली सड़क के ठीक नीचे भी कुछ घर थे, जहाँ एक में हमारे समय में जुगरान इंजीनियर रहते थे, उनकी बहन उषा हमारे साथ प्रताप कालेज में थी. वैसे तो यह युवाओं का स्कूल था पर 1969- 70 में ग्यारहवीं में हमारे साथ,विज्ञान-वर्ग में कुछ लड़कियां थी और यह परंपरा रिजवी साहब ने उनकी लड़की खालिदा को शायद 1966 में प्रवेश देकर शुरू की थी ? खालिदा का भाई आरिफ और एक ममेरा भाई निजामुद्दीन भी था . जुगरानजी के घर के सामने एक छोटा मैदान था और वहां बेसिक शिक्षा अधिकारी या डिप्टी साहब का आवास था,वहां बडथ्वालजी, बहुगुणाजी और तोमर साहब को रहते हुए हमने देखा था. तोमर साहब का बड़ा लड़का हरेन्द्र हमारा दोस्त था, छोटे का नाम नरेन्द्र था . यह पूरा इलाका एक ढलान पर बसा था . यहीं गुरूजी शभुनाथ सिंह रावतजी और भुला बलवंत / बल्लू का भी घर था ?
अस्पताल के सामने . उसके पहले नरेन्द्र महिला विद्यालय के बाद एक चाय की दुकान व उसके बाद जिला उद्यान अधिकारी का कार्यालय था जहाँ हर्षमणि रतूड़ी, विजयवीर भाई , राजू भाई के बड़े भाई असवालजी ,मंगनानन्द नौटियाल आदि कार्यरत थे और उसके बगल में सुमन पुस्तकालय था और उसके बगल में डाक्टरों के रिहायशी क्वार्टर थे तो सामने अस्पताल था ? टेहरी में पुरुषों और महिलाओं के अलग-अलग चिकित्सालय थे. मरदाना अस्पताल में, हमारे बचपन में शुरू में ममगाई डाक्टर थे, जो मृदुभाषी और काफी मिलनसार थे और उनके हाथ में यश भी था, उनका एक लड़का उमेश था ? बाद में यहाँ डाक्टर ब्रजमोहन नौटियाल भी रहे जो कि, स्थानीय व्यक्ति थे , इसके अलावा डाक्टर सलूजा भी रहे, उनकी लड़की प्रेमलता हमारी सहपाठी थी . इनके अलावा सोने का कड़ा पहनने वाले डाक्टर बिष्टजी डाक्टर आर.पी.मिश्रा ( ये काफी योग्य थे ), पंवारजी ,आर .पी. सिंह, बहुखंडी , हमारा सहपाठी ललित गुसाईं आदि भी रहे . यहीं अस्पताल के परिसर में ही मित्र हरगुलाल व चमन लाल के माता - पिता व हमारे सहपाठी गोविन्द के पिता भी कार्यरत थे ,गोविन्द भटकंडा का भट्ट था, उसका एक छोटा भाई सुंदरु भी था. महिला अस्पताल में शुरू में एक बेहद सुंदर बहुगुणा डाक्टर होती थी और उनका नाम शायद चंद्रकांता था, लेकिन शहर की महिलाएं वैसे रोग निदान और उपचार के लिए पुरुष चिकित्सालय की शरण लेना ही पसंद करती थी ?
इसके सामने एक पुराना मकान था, पता नहीं किसका था दरवाजे के बाद एक गली थी और तब उसका आँगन था और फिर गोत्रानन्दजी घिल्डियाल और सर्वानंदजी डोभाल के मकान थे . गोत्रानन्दजी शायद उनकी बहन के मकान में रहते थे, जो कि उत्तरकाशी में रहती थी और उनका नाम लेखनी था . गोत्रानन्दजी वकील थे ,सरकारी वकील भी रहे और सामुद्रिक शास्त्र में रूचि रखने के साथ ही,अंक ज्योतिषी के अच्छे ज्ञाता थे. बाद में उन्होंने उसके पीछे ही, पोलो फील्ड की तरफ कुछ पक्के कमरे भी बनाये थे और उनका एक बेटा भी वकील बना. सर्वानंदजी भी वकील थे, उन्होंने टेहरी में प्रेक्टिस शुरू की और फिर बाद में इलाहबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे, उनके दो लड़के थे,एक का नाम लोकेन्द्र था और एक बाद में टेहरी में भी पढ़ा. सर्वानंदजी का छोटा भाई माधू को हम प्यार से दादा कहते थे और उनकी बगल में पापड़ी काष्ठ कला केंद्र था और उसमे श्रीनगर के नेगीजी वर्षों कार्यरत रहे और फिर उसके बगल में कांग्रेस पार्टी का दफ्तर था, जहाँ सरदार प्रेमसिंह रहते थे ,
वे पंजाबी न होकर जौनपुर के थे. उनको हमने कभी कांग्रेस के किसी जलूस, धरने प्रदर्शन में नहीं देखा ? उनका व्यक्तित्व बहु आयामी था, वो ठेकेदार, पत्रकार, अंग्रेजी का अख़बार पढनेवाले ,इंजीनियरों / अधिकारियों के मित्र, कुशल फोटोग्राफर, जीप –कार चलाने के शौकीन, फिल्म प्रोजेक्टर चलाने में माहिर और और भी कई कलाओं के ज्ञाता थे . वो किसी भी मशीन में रूचि रखते थे . उनका वश चलता और मौका मिलता तो वो शायद चंद्रयान भी उड़ाते थे ? उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली और रुचियाँ परिष्कृत थी . वे हमेशा सफ़ेद पगड़ी ही पहनते थे ? और इस सड़क के अन्तिम छोर पर मित्र डाक्टर शंकर उनियाल के नाना ,मुख्त्यार ब्रह्मदत्तजी का मकान था. शंकर के पिता शायद शिक्षक थे और एक मौसी तब अध्यापिका और दूसरी हमारे मोहल्ले में ब्याही थी और इंदु मामा की पत्नी हैं . तो सड़क के दूसरी और जनाना अस्पताल के बाद नारी निकेतन था, जिसमें मुसीबत की मारी नारियां ,सर्कार के आदेश पर रहती थी और किसी अपराध से पीड़ित होती थी . बाद में इस भवन की निचली मंजिल में जंगलात के सिविल एवं सोयम विभाग का कार्यालय खुला था ,जिसके प्रभारी बिष्ट्जी थे ,हट्टे –कट्टे बिष्ट्जी खेलों के शौक़ीन थे और टेबल –टेनिस के अच्छे खिलाड़ी व युवाओं के मित्र थे, जैसे –मामा हर्षु, पंकज और अनिल शर्मा के दोस्त . फिर डाक्टर भाई मानेन्द्र भंडारी का घर था.
सातवीं-आठवीं में मै उनके किरायेदार नार्मल स्कूल के प्राध्यापक रामधारी सिंहजी के यहाँ और नवीं दसवीं में प्रताप कालेज के विष्णु भगवान पांडेजी के पास पढने जाता था तो मानु भाई से शुरू से पहचान थी उनके बड़े भाई फ़ौज में कप्तान थे और दो छोटी बहने थी . फिर हर्षपति और बेलीराम डंगवाल का घर था, उनके पिता, दिलेरामजी , राजस्व विभाग में थे और उनके किराये में चचा कामरेड राजेश्वर उनियाल रहते थे . उनका लड़का महेश्वर था . हरषु की बुआ श्रीमती सौभाग्यवती गैरोला थी उन्हें हम मौसीजी कहते थे और शहरवाले नेत्यांणजी. वो कांग्रेस की महिला नेता थी ,जिन्हें अब नेत्री भी कहा जाता है पर हमारा पहाड़ी संबोधन ऐसा था कि, उसमें महिला शब्द जोड़े बिना भी महिला होने का बोध स्वतः ही हो जाता था. उनका लड़का मेरा नामराशी और दोस्त भी था, उसकी बड़ी बहन अन्नू हमारे साथ पढ़ी थी और उससे बड़ी बीना स्टेट बैंक में थी और उनके पति पार्थराज कवि, हमारे ही मोहल्ले के थे ? उसके बाद प्रताप कालेज के शिक्षकों का सरकारी आवास था ,उसमे मेवाड़जी रहते थे, उनके कई बेटे पटवारी, शैलू ,रम्मू ,गोरया आदि थे .यहाँ और भी परिवार जैसे पी.टी.आई.थपलियालजी आदि भी रहते थे.
यहीं पर हमारा घंटाघर चौक था. जिसके एक ओर घंटाघर खड़ा था और बगल में नगरपालिका थी . घंटाघर के नीचे ही राजाओं के ज़माने में सुबह चार बजे नौबत बजती थी व राजाओं का बिजली घर भी था .घंटाघर के अंदर जाने के लिए सीढियां थी. तल मंजिल खाली थी और पहली मंजिल के दरवाजे पर ताला लगा रहता था लेकिन उसके फर्श पर दो छेद थे, जिनसे मजबूत तारों के सहारे लटके दो लोहे के पिंड ,शायद घंटे साफ़ देखे जा सकते थे और वहां एक सूर्य –घड़ी भी थी, मजबूत लोहे के डंडे पर लगी बड़ी गोल लोहे / तांबे की प्लेट जिसके बीच के छेद में पेंसिल डालकर हम समय देखने का नाटक करते थे ? नगरपालिका के नीचे दो दुकाने,बाजार जाने के लिए सीढियां ,सामने प्रताप कालेज का गेट, उसके पास स्टेशनरी की डोभालों की दुकान , टेलर मास्टर , जेल की गली और डिग्री कालेज की कैंटीन थी. एक समय अठूर के नेगीजी यह कैंटीन चलाते थे ,शाम को हम वहां शीप खेलते थे और कुछ दोस्त मैदान में फुटबाल और फिर सब कट्ठे होते , टेबुलों पर भाई प्रेम बिराला तबला बजाकर बढ़िया गाने भी सुनाता था. वह नक़ल उतारने में भी माहिर होता था और सामने भावी वकील लोग पढ़ रहे होते थे ,जिनमें अधिकांश सरकारी कर्मचारी होते थे . विधि संकाय की कक्षाएं शाम को चलने से कई लोग नौकरी के साथ एल.एल.बी.करने की सुविधा का लाभ उठा सके. दिन में डिग्री कालेज में पढाई के साथ राजनीति भी होती थी ? शुरू में डिग्री कालेज सरकारी हुआ करता था, बाद में गढ़वाल विश्वविद्यालय बनने पर स्वायत्तशासी संस्थान हो गया .
इसके बगल में पंवार बंधुओं की चाय –मिठाई की दुकान ,भुवना की राशन की दुकान, महिपाल नाई की दुकान, लक्ष्मी प्रसाद नौटियालजी की चाकलेट मूंगफली की दुकान और मुछोंवाले बिंदास भट्टजी की सब्जी की दुकान थी . उनका एक शानदार कुत्ता भी था. फिर सुक्खन मोची की दुकान और चचा अनंतराम की चाकलेट ,टाफी ,सिगरेट और नाई की टीन की दुकान कम घर और मॉडल स्कूल का रास्ता था, जिस पर ठक्कर बाप्पा छात्रावास था .शुरू में सिराईं –गोरण के शंकर दत्त डोभालजी इसके प्रभारी थे ,वो गांधीवादी और सर्वोदयी विचार धारा के थे और वहां सर्वोदयी साहित्य मिलता था. बाद में उनके कार्यालय के आगे ,उनकी जमीन पर एक पक्का नया भवन बन गया ,जिसमे तल मंजिल पर उनी खादी की दुकान और ऊपर जिला सहकारी बैंक की शाखा थी ,जिसके प्रभारी प्रताप नेगी थे और थोड़ा आगे जाकर भगवानदास नाई का खोखा था ? घंटाघर चौराहे पर बाद में एक छोटा पार्क भी बना
उसके सामने दूसरी और शुरू में एक पानी की डिग्गी थी, उसके सामने से ही शंकर उनियाल के नाना ब्रह्मदत्तजी के चौक / घर का रास्ता था ? तो बगल में ताऊजी गोपीवल्लभ खंडूरीजी का मकान था ,वो मसूरी/ देहरादून में रहते थे व मालदारजी राधावल्लभ खंडूरी के भतीजे थे. जो अपने ज़माने में जंगलों के ठेकेदार व दादाजी के धरम भाई थे.आधी उत्तरकाशी उनकी थी. इसमें शुरू में अनिल थपलियाल के पिताजी रहते थे और बाद में उनके जीजा बछेती वकील साहब और नीचे नौटियालजी का होटल और एक और होटल था ? फिर थी मुरारी के पिता,मामा मोरसिंह की मशहूर चाय की दुकान. पहले शायद वह पार्टनरशिप में थी, वहीँ खंडूड़ी चचा का भी होटल था ,फिर कुडियाल लोगों का होटल था, कभी यहाँ देबू पंडित के पिता की मिठाई की दुकान भी थी, पीछे माधव खंडूड़ी भी रहता था ,उसके पिता आई.टी.आई में शिक्षक थे .और फिर रामप्रसाद की मशहूर चाय की दुकान थी और बाद में किसी और ने वहां मिठाई की दुकान खोली थी ? फिर एक पान का खोखा था जो भगतराम का था और पहले उसके ससुर बैठते थे ? उनको छोकरे, ताऊ पान नहीं बिकेंगे कहकर चिढाते थे और भाग जाते थे और बदले में माँ –बहन की गाली खाते थे ?
उसके पीछे सार्वजनिक निर्माण विभाग के क्वार्टर थे और आगे से प्रदर्शनी मैदान का रास्ता था. तो सामने प्रताप कालेज का क्वार्टर था ,जिसमे सुरु भाई पैन्यूली रहते थे. वे एन.सी.सी के इंचार्ज थे और बाद में नार्मल के प्रिंसिपल भी रहे .इस घर के बाहरी हिस्से में एक चर्मकार परिवार भी रहता था आर बगल में नार्मल स्कूल का छात्रावास था, जिसके सामने सार्वजनिक निर्माण विभाग का ऑफिस था, जिसके बाद में कई प्रखंड बने. इसकी बगल से ही कोर्ट परिसर की सीढियां थी और यही मोती बाग़ भी था ? यहाँ कभी राजा ,हजूर कोर्ट में बैठकर ,न्याय करता था बाद में रंगीन कांच की खिडकियों और झाड़ –फानुशों से सुशोभित इस सफ़ेद भवन में जिला सिविल एवं सेशन जज बैठा करते थे . कोर्ट परिसर के शुरू में ही निरीक्षण भवन या डाक बंगला था जिसके पीछे माडल स्कूल की तरफ सार्वजनिक निर्माण विभाग के एक्जीक्युटिक इंजीनियर का आवास था तो अंदर की तरफ तहसीलदार टेहरी का कार्यालय, पुलिस का गार्ड –रूम ,मालखाना, ट्रेजरी , बंदीगृह, मुंसिफ मजिस्ट्रेट का न्यायालय ,तहसीलदार प्रताप नगर का कार्यालय आदि विभिन्न भवनों में स्तिथ थे.
तहसीलदार प्रताप नगर के कार्यालय के नीचे एक बड़ा बुलंद दरवाजा था, जिसके लकड़ी के बड़े फाटक थे और राजमाता कालेज की तरफ दो मेहराबदार आकर्षक खिड़कियाँ थी. कोर्ट परिसर में वकील लोगों के अनेक तख़्त / बस्ते थे ,बाद में कुछ टीन के चेंबर भी बने थे और कई आम के पेड़ थे ,दो –तीन चाय की कैंटीने भी थी . इस परिसर से ही सटे जिला परिसद व सब रजिस्ट्रार के भी कार्यालय थे . सेशन कोर्ट के पीछे एक पानी का 8-10 फिट गहरा हौज भी था, जिसमे पानी नहीं होता था और उसके बीच में बने पिलर के ऊपर दो परियों की धातु की बड़ी मूर्ती थी और आमों का एक बहुत बड़ा बाग़ था, और यही मोतीबाग था, यहाँ सब्जियां जिसमे उम्दा नस्ल के पचासों पेड़ थे, यहाँ सब्जियां भी उगाई जाती थी .इसके चरों ओर काटेदार बाड थी बाद में इसी बाग़ में बाँध परियोजना का आवासीय संकुल भी बना और उसका नाम मोतीबाग़ कालोनी था जिसका एक छोर भादूमगरी तक था . सेशन कोर्ट के सामने का रास्ता गाडियों के आने-जाने का मार्ग था जो श्रीनगर रोड पर मिल जाता था .इसके किनारे पर डैम के उच्च अधिकारीयों के आवास थे .इस तरह कोर्ट परिसर में तीन –चार तरफ से आने जाने के रास्ते थे. काले कोट पहने वकीलों की भागम-भाग, मुस्त्कीसों की भीड़, अर्जनवीसों के टाईप रायटरों की खटपट और “ सरकार बनाम --- हाजिर हो की पुकारों से यह परिसर दिनभर गुलजार रहता था .


राकेश मोहन थपलियाल जी का आलेख